वीकेंड डायरी : हमजातोव और उसका दागिस्तान




किताब के बारे में. किताबें भी आपको किस्मत से मिलती हैं, क्योंकि हो सकता है कोई खास किताब आपके पास रखी हुई हो और आप उसे काफी समय तक ना पढ़ पाएं हों, जैसे कहा जाता है कुछ अनुभव आपको उम्र की ढलान की तरफ ही जाते हुए हो सकते हैं. उस किताब के बारे में क्या कहेंगे, जो उस देश के बारे में हो जो लगभग नहीं सा दिखाई देता है मानचित्र पर, जहाँ कई भाषाएँ फिर भी हैं और जिस भाषा में ये किताब लिखी गयी है, उसको बोलने वाले कुछ एक लाख लोग बचे हों. एक अरसे से ये किताब पढ़नी थी. ह्म्ज़तोव को पश्चिमी देशों में बहुत नहीं पढ़ा जाता पर भारत में पढ़ाकुओं में ये लगभग जाना पहचाना नाम हैं, किताब भी पुरानी है पर मेरे हिस्से अब गिरी. ह्म्ज़तोव कहते हैं जैसे महमूद ने पूरी ज़िन्दगी प्यार लिखा, वैसे ही वो पूरी ज़िन्दगी दागिस्तान लिख पाए. मार्केज़ ऐसे ही पूरी ज़िन्दगी लैटिन अमेरिका लिखते-रचते रहे. 
लेखक के बारे में. 
महान लिखने वालों में गद्य और कविता का फर्क हमेशा ही न्यून होता जाता है. ह्म्ज़तोव पहाड़ से आते हैं, एक ऐसे देश से जो हमारे लिए इतना दूर है कि हमारे लिए जादू हो सकता है. मार्केज़ पढ लेने के बाद, हमेशा ही जब आप जादू की ओर लौटते हैं तो आपका पाठ मार्केज़ से होकर गुज़रता ही है. ह्म्ज़तोव को पढ़ते हुए मेरे साथ भी यही हुआ पर जहाँ मार्केज़ विस्मृत करते हैं, वहां ह्म्ज़तोव सहज आनंद की ओर मोड़ते हैं. एक ओर जहाँ गल्प का यथार्थ जादुई है, इतिहास उसमें छिपा हुआ है, दूसरी ओर उस जादू में से इतिहास को निकाल कर ह्म्ज़तोव सामने रख देते हैं.  पर वस्तुत: दोनों हैं तो किस्सागो ही. मैं सोचता हूँ अगर हम इन महान लिखने वालों के हिसाब से दुनिया बनाएं, उनमें वो सब देश डालें जो ये लिखते हैं तो दुनिया कितनी विलक्षण बने. बहरहाल ह्म्ज़तोव के बारे में इतना तो कह सकते हैं कि उसने खेती किये जाने जितना ज़रूरी काम तो ज़रूर किया.
भाषा के बारे में
एक ऐसी भाषा जिसको सिर्फ एक लाख लोग बोलते हैं, रोज़ कम होते जाते हैं -भाषा की अहमियत उनलोगों से पूछिये. अपनी कहानी और अपनी ज़िन्दगी में अपनी भाषा का ना होना वैसे ही है कि आपने सारी कच्ची सब्जियां जमा कर लीं और मसाला डाला ही नहीं. पनीर बस पनीर रह जायेगा अगर उसमे मसाले सही नहीं डाले गये. अपनी भाषा से प्रेम किये बिना, प्रेयसी से भी प्रेम करना नामुमकिन है.
 विषय के बारे में 
 ह्म्ज़तोव पूरी दुनिया घूमते रहे, दागिस्तान के पहाड़ों को अन्दर तक छाना, महान रूस देखा, भारत भी आये और कलकत्ता के पास के छोटे गाँव तक गये. फिर भी अगर पूछा जाए कि त्सादा गाँव के बूढ़े कवि के बेटे रसूल (जिसके नाम का मतलब प्रतिनिधि होता है) ने अपने जीवन में कितनी यात्राएं कीं और किनके बारे में लिखा और हर जगह क्या खोजता रहा तो उसने बस दागिस्तान खोजा. वो क्यूबा में होता और वहां कम्यून में उसे दागिस्तान दिख जाता, वो कलकत्ता के पास एक गाँव में धान बिनती औरतों को देखता और उसको अपने गाँव की औरतें याद आ जातीं, मोस्को में घुमते हुए हवा में उसको अवार लोरियाँ सुनाई दे जातीं.
पहाड़ के बारे में और उकाब के बारे में.
बचपन में जो सबसे पहली कहानी मैंने पढ़ी होगी,  वो एक रुसी कहानी थी, साइबेरिया में बर्फ गिर रही थी, दर्योंका अपने बूढ़े रिश्तेदार के साथ भीषण सर्दियाँ काट रही थी और उसे सोने के खुरों वाले बारहसिंगे का इंतज़ार था. कुछ चौबीस साल पहले पढ़ी इस कहानी को मैं बाद बाद तक लौट कर पढता रहा. इसमें पहाड़ों का जादू था, लौटने की उम्मीद थी और एक असंभव आदर्श था जो सहज ही भावुक और बहादुर लड़कों को अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है. उकाब को खोजना उसी एडवेंचर पर लौटने जैसा है. जैसे उकाब फिर आकाश में बहुत बहुत उड़ने लगेंगे, भेड़ें उनसे डरती हुई डकारा करेंगी और घास के बड़े मैदानों के पास जीवन संतुष्ट रहेगा. फिर बर्फ के दिनों में कोई बारहसिंगा आये ना आये, बढ़िया शीरा मिलता रहे. 
कविता के बारे में. 
ह्म्ज़तोव से पूछा गया कि वो कवि था फिर उसने उपन्यास में दागिस्तान को क्यों लिखा? क्योंकि अलग अलग मौसम के लिए अलग अलग कपडे होते हैं. क्या आप कवि होना सीख सकते हैं? नहीं. पर माँजना ज़रूरी है. अनुवादों के बारे में - हमजतोव क्यूबा में हजामत बनवाने गया. वहां का नाई नौसिखिया था. हमजतोव घबरा गया. उसको लगा उसके गालों को बहुत दर्द होगा. नाई से उसने ये अवार और रूसी भाषा में कहा और अपने गालों की ओर इशारा किया.नाई तुरंत बाहर चला गया और दांत उखाड़ने वाले एक आदमी को लेकर चला आया.
अंत के बारे में.

रूसी कविता के हिंदी अनुवादों में छंद का जो मसला है वो बहुत बड़ा है. कविता हर पीढ़ी के लिए एक होती है पर अनुवाद के रेफरेंस फ्रेम हर पीढ़ी को खुद तय करने पड़ते हैं. मुझे बहुत शिकायत रहती है. मैं झीखता रहता हूँ. "मेरा दागिस्तान" में भी जिन कविताओं का अनुवाद है मेरे वाले एडिशन में, उनसे मैं खुश नहीं हूँ. फिर भी जो गद्य है अगर वो बीस प्रतिशत भी हमतक पहुंचा है तो हम भाग्यशाली है. मेरा मानना रहा है कि कविता लिखने से कुछ नहीं होता, कहानी कह देने से भी...हम अपना समय बरबाद करते हैं, एक श्राप है जो बेहिसी तक पीछा करता है, जिसके बिना आप सो नहीं सकते और सोते हुए भी उसी मोड में रहना होता है. कवि कभी आराम नहीं करता, ये ह्म्ज़तोव कहते हैं. इसीलिए शायद, वो एक असंभव काम करते हैं. जहाँ मार्केज़ को पूरी दुनिया का रीकंस्ट्रक्शन करना पड़ता है, ह्म्ज़तोव अपना मुल्क सहेज लेते हैं - अवार भाषा अपने गीत बचा लेती है, अवार लोग दुनिया में कहीं भी चले जाएँ, अवार बने रहते हैं. ये बस कविता से ही संभव होता है.  


मेरी यादों में मुक्तिबोध : प्रकृति के गंध कोश काश हम बन सकें! 11.09.2017

तस्वीर : साभार: इंडीयन इक्स्प्रेस 


ट्रिपलिंग स्कूटर चलाते हुए मेरे जैसा कुशल ड्राईवर अमूमन क्या बात करता है - हर किसी के जैसे, हम हिंदी के सबसे दूरूह कवियों की बात कर रहे थे. राहुल पीछे लटका था, बालमुकुन्द बीच में. लोहानीपुर की गलियां शमशेर और मुक्तिबोध तक आकर जवाब देने लगीं. जितने बड़े गड्ढे उन सड़कों पर हैं, उतने ही बड़े गड्ढे, इनको लेकर हमारी समझ में भी हैं. मैंने मुक्तिबोध की पहली किताब दरियागंज में खरीदी थी. हंसराज कॉलेज की लाल दीवारों से पीठ टेककर उनकी दो कवितायेँ एक प्रेयसी को पढ़ कर सुनाई.सोचा "शुन्य" से "ज़िन्दगी में जो है सहर्ष स्वीकारा है" का सफ़र हम सब को करना है. मुक्तिबोध तब से ख़ास हो गये.पर इन दो कविताओं के बाद वो कवितायेँ छूट गयी थीं. 
लौटा जब तब तक झंडे कई बार बदल चुका था, आईनों से वास्ता होकर टूट चुका था, गर्दन की चमड़ी बोझ ढोते मोटी हो रही थी और बेचैन दिल हर उम्मीद को संशय से देखता है. इसके पहले अगर मुक्तिबोध को खोजता, शायद ही मिलते. जाने अनजाने हम कवि सबसे ज्यादा अपने वजूद के सवालों से जूझते हैं, और हमारे अन्दर के ग्रे में जो काला है उससे लड़ते जाते हैं.शमशेर के हर बिम्ब में उनका होना तय होता है - मानों एक दृश्य बनेगा और उसमे वो भी शामिल हो जायेंगे. मुक्तिबोध दुनिया को अपने अन्दर शामिल करते हैं और उनका "निजी" सवाल पूछता रहता है बार बार जहाँ शत्रु है वहां भी और जहाँ वो कन्फर्म करते हैं वहां भी .मुश्किल काम है उन पर बात करना- जैसे चाँद है तुम जानते हो, और देखना असंभव है एक बादल वाली रात को. पर चाँद का आकर्षण कहाँ कम होता है. 
बीस रातें ना सो सकने के बाद, इक्कीसवीं रात को मैंने उन्हें दोबारा पढना शुरू किया. तब तक मकबूल फ़िदा हुसैन,मुक्तिबोध की शवयात्रा से लौट जूते पहनना छोड़ चुके थे, एलियट के अलावा मुझे बाकी आलोचकों से चिढ हो गयी थी, पुश्किन का हिंदी अनुवाद बहुत परेशान कर रहा था और कोई सवाल हल होने की बजाय उलझता जा रहा था - मुझे रास्तों की ज़रूरत थी, लम्बी कविताओं के देश जाना था और कविता क्यों करनी है ये सवाल करने की ज़रूरत लग रही थी. महान कवि हमेशा त्रासदी में आपको मिलता है और उबार लेता है.उन्होंने मुझसे पूछा - "दुनिया के नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है."
 और बहुत कुछ सरल हो गया. उनकी डायरी से मैंने अपनी रुलबूक के पन्नों को कुर्बत रखने को कहा, हम सीखते रहे बहुत कुछ. ग्राम्ची और देरिदा से बौखलाहट बार बार उनके पास लायी. उन्होंने फिर कहा-"जहाँ भी स्नेह या संगर, वहां पर एक मेरी छटपटाहट है,वहां है जोर गहरा एक मेरा भी." 

ऐसा नहीं है कि आप इन जवाबों से कन्विंस हो जाते हैं,असल जीवन में भी और कविता में भी खास कर, खुदा बनाने से बचना चाहिए. आप एलियट की हर बात कहाँ मानते हैं चाहे वो कितने तर्क कर ले, हैमलेट जिस कविता का नाम है उसको कैसे नकारा जाए. पर जो समग्र बनता है सोच का,जीवन का, उसका जो केंद्र है उसके आसपास हैं मुक्तिबोध, जैसे शहर के लिए सडकें हैं, सड़कों के लिए गड्ढे हैं और कवियों के लिए यादें हैं. सन चौंसठ में जब ग्यारह सितम्बर को गजानन माधव का निधन हुआ, उनकी माचिस की तीली से बीड़ी जलाती तस्वीर क्लासिक हो जायेगी ये तय था, अगली शताब्दी का सन सत्रह आते आते दायीं और बायीं दोनों ओर सवालों से जूझना होगा कवि को, वो कह चुके थे. सब के अपने अँधेरे - कहाँ है आत्मा (और मैं सुनता हूँ चिढ़ी हुई ऊँची खिलझाई आवाज़).