मौज़ू-ए-सुख़न (उपन्यास)





("मौज़ू--सुखन" एक शहर और उसके बहाने बिगड़ते अतीत की, इस वक़्त बनते हुए वर्तमान की कहानी है या जय, सहर, और असद के आज में आने वाले खंडित कल को देखने की कहानी.. इस उपन्यास में ये दोनों बातें इतनी एक मेल है, अंदर तक ऐसे घुली हुई हैं कि इन्हें अलग कर के देखना मुश्किल है। हम सब बीते कल में या आज वर्तमान में जब भी, जहां भी, जिस भी तरह अपनी स्मृतियां इक्कठी कर रहे होते हैं एक शहर उसमें नामालूम तौर पर हमेशा शामिल रहता है। उस शहर के कोटे-परकोटे, गलियां, मैदान, सड़कें, बाग-बगीचे, नदी-नालियाँ सभी कुछ तो तह दर तह जमा होता रहता है हमारी याद की बुनावट में। ये कहानी भी एक ऐसे शहर और उसकी यादों की है जहां कितने वाकये और किरदार इसको मुक़म्मल करते हैं, अपनी स्मृति में इसे पलट के देखते हैं। कहानी के तीनों किरदार अपनी अंतर्कथाओं की बेचैनी के बाद भी कैसे एक दूसरे से जुड़े रहे ये बात इस कहानी को अलग और बेहतर बनाती है। अंचित ने लिखते वक्त एक साथ होने पर भी इन किरदारों के बीच जितनी दूरी बरती है वह कथा में पर्सनल स्पेस का बेहतरीन प्रयोग है। ये पात्र जानते हैं कि ये तीनों दोस्त भले ही हों पर इन्हें एक दूसरे के नितांत व्यक्तिगत क्षेत्र में अतिक्रमण का अधिकार नहीं।

"मौज़ू--सुखन" पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा कि इस कहानी को कुछ और खुलना था, बढ़ना था। आख़िर तक आते-आते कहानी के बीच में गुज़रे हुए बीते सालों को जानने की इच्छा तीव्र हो जाती है। इन पांचों किरदारों ( चंदू और शहर भी दो मुकम्मल किरदार हैं) में जय और इस शहर को और कुछ और बढ़ना था, सबके जाने के बाद जो जय  शहर में रहा और शहर जो उसके साथ इन सालों में बढ़ा, नए में तब्दील हुआ उसका इस कहानी में क्या असर होना था ये जानने की चाह बनी रहती है। अंचित को एक अच्छे, व्यवस्थित कथानक एवं संभावनाओं भरे उपन्यास के लिए बहुत बधाई और Bynge Hindi  की पूरी टीम को इसे हम तक लाने के लिए बहुत शुक्रिया। - अनघ शर्मा )



उपन्यास का लिंक- https://bynge.in/hi/story/01743605ce9e47a9811d


सहर 

किताब लिखने का वादा था जिसको पूरा करने की कोशिश की। बहुत कुछ नहीं कह पाया। एक बड़े क़िस्से में से सिर्फ़ एक रेशा उठा कर इस कथा में रख दिया क्योंकि तुम मुझसे पूरी समेटी ही नहीं गयी। एक पूरा उपन्यास सिर्फ़ तुम्हारे होंठों के बारे में लिखा जा सकता था और एक पूरा मेरे विचलनों पर। तुम्हारा शहर मुझसे कितना समेटा गया मैं नहीं जानता। फिर भी यह जानता हूँ कि तुम्हारा शहर सिर्फ़ मैं लिख सकता था , और दूसरा कोई लिख देता तो मुझे बर्दाश्त नहीं होता। लिखते हुए कई कई बार मुझे तुम याद आयी, और मैं सोचता रहा कि तुम्हारे लिए मैं भी १५४ सॉनेट लिखूँगा। 

कि मेरे पास तुम्हारे कई क़िस्से यूँ ही पड़े हैं और उनका क्या होना है मैं नहीं जानता। कि मैं तुम्हें देखता था कि तुम में खुद को खोजता था मैं नहीं जानता कि तुमको बाँटने से तुम मुझसे थोड़ा खर्च हो जाओगी यह भी जानते हुए इस कथा की ओर गया क्योंकि तुम चाहती थी। तुमको जितना जाना दूर से और इसीलिए बहुत सारे रहस्यों के साथ - उतना भी नहीं जितना जय और असद जानते हैं। तुमसे वैसे ही प्रेम किया जैसे सूरजमुखी का फूल सूरज से करता है- काश यह कह सकता। कि कथा तुम्हारी मोहब्बत से ज़्यादा मायने रखती थी यह ग्लानि तो बनी रहेगी। कि कवि को गद्य लिखना आएगा , यह भी तय नहीं, कि उससे अपने से बाहर का कुछ कहा जाएगा यह भी मुश्किल लगता है। सब जानते हुए सिर्फ़ तुम्हारे लिए यह लिखी गयी है। इसको अपना मानो। 

तुमने टुकड़ों में किताब नहीं पढ़ी। मंज़ूर किया। मुझसे नहीं सुनी मंज़ूर किया। अब किताब पूरी हुई और एक साथ पढ़ी का सकती है , पढ़ लो। 

मैं पाब्लो किसी का भी रहूँ 

तुम्हारा ही कवि रहूँगा 

अंचित

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