आगही गर नहीं, गफ़लत ही सही.
कई सारे ख़्याल मन में आते हैं.
नाटक एक रात में बीत गया इसीलिए फ़िल्म दो हफ़्ते तक देखता रहा.
कई बातें मन में चलती हैं, कई नींदें सोता हूँ और कई कई बार जागता हूँ हर रात.
स्थापत्य और भटक के बीच जितने अंतरद्वन्द हैं उनसे मुक्ति किसी परिस्थिति में नहीं दिखती.
मुझको ऐंटिसिपेशन की बीमारी है. कवियों को नहीं होनी चाहिए. हो सके तो कवि ही नहीं होना चाहिए.
हाँ, सत्य है यक्ष, हम बस समय पकाते हैं.
मल्लिका मल्लिका क्यों है?
क्योंकि मल्लिका तीन लोग लिख रहे हैं.
क्योंकि मल्लिका कम से कम तीन बार लिखा हुआ महाकाव्य है.
क्योंकि कवि कविता से जीत जाए, कवि को कैसे मंज़ूर होगा
क्योंकि कवि से पहली माँग कविता को होती है.
कवि सिर्फ़ ख़ुद को देखता है. सम्भवत: कवि होने का मतलब यही है.
क्या यह सच नहीं कि मल्लिका का देखना सिर्फ़ कालिदास भर को सेलिब्रेट करना है!
लेकिन जैसा कविता वैसे प्रेम, वहाँ सब हारने की कोशिश करते हैं, सत्ता से भागने की कोशिश.
उद्दात कितना है यह पता नहीं, अतिशयोक्ति है, अनर्थक है. सत्य है.
प्रतीक्षा से ऊब होती है.
निराशा धीरे धीरे सब को अपना अन्न बना लेती है.
विरोधाभासों के सामने धैर्य चाहिए होता है.
उसके बिना कविता कैसे होती है मैं नहीं जानता - कालिदास को मल्लिका को छोड़ कर नहीं जाना चाहिए था.
फिर कालिदास कालिदास कैसे होते. बिना मल्लिका के भी कालिदास कैसे होते.दो विपरीत एक जीवन में एक साथ नहीं मिलते और दोनों अगर आधे आधे भी मिलते हैं तो भी अवसाद कहाँ साथ छोड़ता है.
कुछ पूरा नहीं मिलता. सब खंडित.
हर वक़्त आप जो चाहते हैं उससे एक कदम पीछे होते हैं.
वही चाहिए होता है जो पहुँच में नहीं होता.
बिना चाहे, अपने सीने से लगाए एक आह भर चाह को लेकर जिए जाने में जो धैर्य लगता है
जो स्व-निष्कासन लगता है, उससे मैं डरता हूँ. भागना चाहता हूँ.
कोरे पन्नों से लिखा एक पूरा महाकाव्य. सर्वोत्तम.
अगर कुछ लिखा हुआ, एक जीवन के बदले कईयों को सदियों तक जीवन देता रहे तो एक जीवन का शोक नहीं करना चाहिए.
जैसे बिना अभाव के कविता सम्भव नहीं, अभाव बाँट सकने वाले उस एक से उस अभाव को बाँटे बिना कविता के होने का प्रयोजन सम्पूर्ण नहीं होता. फिर भी.
स्वपन हो सकता है एक, है ना मल्लिका?
"लोग सोचते हैं मैंने उस जीवन और वातावरण में रह कर बहुत कुछ लिखा है। परंतु मैं जानता हूँ कि मैंने वहाँ रह कर कुछ नहीं लिखा। जो कुछ लिखा है वह यहाँ के जीवन का ही संचय था। 'कुमार संभव' की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो। 'मेघदूत' के यक्ष की पीड़ा मेरी पीड़ा है और विरहविमर्दिता यक्षिणी तुम हो - यद्यपि मैंने स्वयं यहाँ होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की। 'अभिज्ञान शाकुंतलम' में शकुंतला के रूप में तुम्हीं मेरे सामने थीं। मैंने जब-जब लिखने का प्रयत्न किया तुम्हारे और अपने जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया। और जब उससे हट कर लिखना चाहा, तो रचना प्राणवान नहीं हुई। 'रघुवंश' में अज का विलाप मेरी ही वेदना की अभिव्यक्ति है और....
मल्लिका दोनों हाथों में मुँह छिपा लेती है। कालिदास सहसा बोलते-बोलते रुक जाता है और क्षण-भर उसकी ओर देखता रहता है.
चाहता था, तुम यह सब पढ़ पातीं, परंतु सूत्र कुछ इस रूप में टूटा था कि...
मल्लिका मुँह से हाथ हटा कर नकारात्मक भाव से सिर हिलाती है.
मल्लिका : वह सूत्र कभी नहीं टूटा. "