पाब्लो पांडे की डायरी से एक सफ़हा


किसी फ़िल्म की तस्वीर जो उन दिनों एक सपने की तरह रख छोड़ी थी। 



13 नवंबर 2019 


 उस दिन देश का सबसे बड़ा कवि, देर शाम कविता पर बोलने वाला था।  अगले दिन उसी मजमे में मुझे कविता भी पढ़नी थी।  देश भर के कई कवि वहाँ जुटे थे। अधिकांश उस वर्ग से आते थे जिस वर्ग से वह थी, जिस वर्ग से मैं नहीं था। जो बचे हुए कवि थे, वे उत्तरआधुनिकता के पैरोकार थे। वे अपने पहले होने की, अकेले होने की डींगे हांकते थे। मैं वहाँ होना भी चाहता था, नहीं भी होना। कम से कम होने में एक बड़ी असहजता थी। 


एक वरिष्ठ कवि जो हमेशा बीमार ही रहता था, स्त्री कवियों के पीछे पीछे घूमने वाला था। मुझे उसकी कविताएँ पसंद थीं। और मुझे उस बड़े कवि को सुनना था। पर इन सब ख़्वाहिशों से अलग एक ख़्वाहिश थी, जो मुझे पूरी करनी थी। दुनिया की कोई और स्त्री भी होती तो नहीं, अपनी प्रेमिका भी नहीं। मुझे यह सब उस स्त्री के साथ ही करना था, जिसकी आँखों पर से चश्मा सरकता तो उँगलियाँ मोड़ उसे ठीक करती। 


मैंने देर शाम उससे ताकीद की। हम एक महँगी जगह पर उसके पैसों की चाय पी रहे थे। उसको घर जल्दी पहुँचना था। जिससे उसकी शादी होने वाली थी, वह उससे मिलने रहा था। उसके पिता परेशान थे। उसकी शादी कई जगह टूट चुकी थी। वह इतनी सुंदर थी जितनी सुंदर उगते सूरज के समय नदी होती है। उसने अपनी बड़ी बड़ी आँखों से पूरी शाम मुझे देखा था, मैंने ज़बरदस्ती उसका हाथ थामे रखा था और वह असहज होती रही और एक बार भी हाथ छुड़ाने की कोशिश करने से बचती रही। 


उस कार्यक्रम में घुसते ही एक बीमार युवा कवि से भेंट हुई। फिर स्त्री कवियों से मिलने जा रहे वरिष्ठ कवि से। फिर एक घुंघराले बालों वाली फ़ेक कवि को देख कर वह हँसी। उसे अपने किसी रिश्तेदार की याद गयी थी। मैं उसके कान में फुसफुसाया, वर्ग चेतना। आगे हम एक ऐसी कवि से मिलने वाले थे, जो दोनों हाथ बढ़ा कर हम दोनों से मिलने वाली थी और फिर अपनी विशिष्टता के साथ एक दिन मुझे कैन्सल करने वाली थी। लिख देता हूँ कि यह उस दिन भी जानता था। वर्ग चेतना।  


अचानक देश के सबसे बड़े कवि ने हमारी तरफ़ देख कर हाथ हिलाया और उससे पूछा कि क्या वह भी कविता सुनाने वाली थी। मैंने उस बड़े कवि के चार्म के कई क़िस्से सुने थे और कुछ का गवाह रहा था। मैंने असुरक्षा महसूस की। लेकिन उस बड़े कवि से आख़िरकार एक बार तो मैं जीत गया। वह मुस्कुराती रही और लगातार मेरी तरफ़ बढ़ती रही। ज़ाहिर है, वह बड़ा कवि जानता था कि क्या चल रहा है। उसी बड़े कवि ने मुझे नेरुदा का पता बताया था। नेरुदा उसका सबसे प्रिय कवि था। 


उस शाम इस दुनिया में वह मेरी थी। वह शायद समझ गयी। हँसती हुई मेरे पास चली आयी। मुझसे सट कर खड़ी हो गयी। मुझे जीने के लिए उस क्षण सिर्फ़ उसकी गंध चाहिए थी। उसे पूरी दुनिया में सिर्फ़ मैं चाहिए था। क्या फ़र्क़ पड़ता है कि कोई लड़का उसका इंतज़ार करता था। क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मैं किसी और से भी मोहब्बत करता था। 


हम सीटों पर नहीं बैठे। उस बड़े, महँगे, सरकारी हॉल में सबसे पीछे शीशे की एक दीवार थी। हम उससे टिक गए। मैंने उसकी कमर में हाथ डाल दिया। उसने अपने काँधे मेरे काँधे टिकाए, और मेरी बाँह से अपना सीना। मैं उसकी देह को ख़ूब चाहता था। वह मेरी देह को अपनी देह से बांध रखना चाहती थी। यह हम दोनों एक दूसरे से यह कहते, उसमें वक्त था। उसके पिता बार बार फ़ोन कर रहे थे। बाहर एक टैक्सी उसका इंतजार करती थी। कवि कुश्ती लड़ रहे थे। एक लड़की को झूठ बोलने की ग्लानि से मैं दबा जा रहा था। 


जो आख़िरी होता है, वह पहला भी हो जाता है क्योंकि मोहब्बत की इबारत में हर सफ़हा बासफ़ा नहीं होता। वहाँग़लतचाहना भी चाहना होता है। 


चाहे जाने में ही होना छिपा होता है।   

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