प्रथम प्रेम : कुछ गद्य कविताएँ



एक 

राधिका से पहली बार दोस्ती तब हुई,जब दोस्ती का मतलब नहीं समझता था, लिखना भी नहीं सीखा था और झूले से डरता था. अपनी कई बदमाशियाँ उसके साथ कीं- मसलन नाक का मैल बेंच के नीचे चिपकाया,क्लास के दौरान टौफ़ियाँ खायीं, और कई कई बार एक ही चूइंग ग़म चूसने वाली उम्र में पहुँचे. उसकी दोनो चोटियाँ भी उसके आँखों जैसी भूरी लगती थीं,और उसकी गंध जब तेरह की उम्र में पहली बार मुझे समझ आयी, हमारी दोस्ती हुए आठ नौ साल बीत चुके थे. वो बग़ल में बैठे बैठे मुझपर लद जाने की आदत छोड़ चुकी थी, मैं उसके कंधे पर हाथ रख देने से सकपका जाता था, हम साथ घूमते पर साथ स्कूल जाना छोड़ चुके थे - वो डरने और शर्माने की उम्र थी.
हाँ, तब गंगा हमारा ठिकाना थी. उसके घाट, उसके किनारों का पानी, उसकी हवा, सब हमारी ज़रूरतों और हमारी ढिठाई के अनुरूप, अगढ़ और अगाध. एक कनैल का पेड़ था और उससे कुछ दूर, एक पीपल, बीच में एक झोपड़ी, जहाँ मैं शामों को एक किताब लेकर बैठ जाता और उसका इंतज़ार करता और उसको आना पड़ता. उसके होंठ तब तक मेरी बाहों से चिपके रहते जब तक वहाँ उसकी लार सूख नहीं जाती.
शहर कुछ होता है, 
नदी कुछ होती है, 
कविता कहाँ पैदा होती है, 
ये सब कौन जानता है. 
दो पुराने दोस्त,जब सब भूल जाते, एक हो जाते.


दो. 

आपका जीवन चाहे कितने भी दरख़्तों के नीचे से गुज़रा हो, आपके ख़्वाबों में एक ही दरख्त होता है, जिसकी डालियाँ विशाल होती हैं, जिनको हमेशा आप नीचे से देखते हैं, बहुत ऊपर बहुत ऊपर. मेरे सब फूल, उसी दरख्त की अलग अलग डालियों से खिलते हैं - कनैल, हरसिंगार, उड़हुल और लिली.
राधिका को गुलाब हमेशा ओवरस्टेट्मेंट लगता था. जिस दिन पहली बार हमें लगा, हम दोस्त से ज़्यादा हो गये हैं, सोलह रुपए का एक गुलाब ख़रीदा मैंने, पूरे दिन सहेजता रहा और जब राधिका को दिया, उसने गंगा में बहा दिया. महेन्द्रू घाट की उस सीढ़ी पर मैंने क़सम खायी कि अब दुबारा उससे बात नहीं करूँगा और पूरे तीन मिनट इस पर क़ायम रहा.
उसने उस दिन एक बादामी रंग की शर्ट पहनी थी और शायद इसीलिए उसकी आँखें कुछ ज़्यादा बादामी लगती थीं उस दिन. नदी भी कुछ ज़्यादा मिट्टी रंग की. बाज़ार भूरे. हम नौंवी में पढ़ रहे थे. शेक्सपीयर थोड़ा बहुत पढ़ने के बाद मुझे लगता कि काश राधिका के घर की बाल्कनी के बग़ल में अंगूरों के लत्तर होते, और काश मैं उस पर चढ़ उस से मिलने जाता.
जैसे भोजन की सफलता भूख में छुपी है,प्रेम भी बिसर जाने में ही सफल हो सकता है. राधिका को मिल्स एंड बूँस की किताबें मिल गयीं थी. हम शर्लाक होम्ज़ और नैन्सी ड्रु को क़ब्र में गाड़ चुके थे और कविताओं की डायरी के लिए लाल कलम खोजने लगे थे.इतना समय गुज़र जाने के बाद, जब हम बातों की बहुतायत में जीते हैं, सब बताने की चाह रहते हुए भी, चुप रह जाने का शग़ल, दुनिया की सब ताक़तों को धत्ता बता देता था.
हम बिसर जाएँगे मैं जानता था, फिर भी आज की कविताओं के लिए तब जी लेता था.


तीन.

खेतान मार्केट पहलवानों का अखाड़ा था पहले, वहाँ मेला लगेगा, ये अकल्पनीय नहीं था. शहर ऐसे ही बदलते हैं. अपने ही शहर के एक कहानीकार की एक कहानी में एक पात्र मुन्नार में एक पेड़ की कोटर को देख कर अपनी उम्र गिनता है - लड़खड़ता है बार बार, और अपनी पहली यात्रा को याद करता हुआ भूलने की कोशिश करता है.
राधिका कई बार मेरे स्कूल बस के पीछे पीछे चलती और मैं घर जाने की जगह उसके साथ निकल लेता. अब लगता है मैंने वो कहानी बदल ली है और दूसरी में आ गया. हमारे अलग होने में तब कुछ महीने बाक़ी थे. उसको मुझे चूमना अच्छा लगने लगा था, वो चाहती थी मैं अपने हाथ उसके आसपास ही रखूँ और हम बेवजह फिरते, किताबें देखते और खेतान मार्केट में सुपर कटपिस सेंटर से टेबलक्लॉथ ख़रीदते.
बग़ल के चर्च की छत देखते हुए वो पूछती कि हम चर्च जितने बूढ़े कब होंगे. जब हमारे पास इतनी असफलताएँ जमा हो जाएँ कि हमारे अवसाद इस भीड़ जैसे तैर सकें शहर पर, मैं उसको कहता.
तब अपना बाज़ार की हर दुकान में साहित्य की किताबें थीं, स्टेशन पर पुराने बुक्शेल्फ़ की दुकानें और पटना की हवा में तेज़ी कुछ कम. हमने बिछोह बहुत झेला. अभी भी उम्र में उसके साथ से कम साल उसके बाद के बीते हैं.
कहानी अच्छी बननी चाहिए, मैंने उसको कहा एक शाम,हम इलाक़े की सबसे ऊँची इमारत के छत पर थे, कुछ दिन पहले वहाँ एक ख़ून हुआ था, एक बड़े झरने से पानी नीचे गिरता था -क़सबे से महानगर होते शहर के लिए एक अप्रतिम चीज़ और लाल सूरज,पूरा गोल जो अब शायद शहर से नहीं देखा जा सकता. उसने मुझे थोड़ी देर चूमा फिर कहा कि हम साथ कहाँ होंगे अब. मैं नायकों वाले जवाब देना चाहता था, कम से कम कुछ ऐसा जो कुछ अलग हो.
कहानी तो अच्छी बनी है, राधिका ने कुछ देर बाद कहा. वो मुझे काफ़ी देर तक चूमती रही फिर.



अंचित. 

चाँद की पेशानी पर एक दाग़ है : अनघ शर्मा की कहानियाँ





बहुत कुछ बीच में ही बिसर जाता है. हम ईश्वर नहीं हैं. आदमी के हाथ ग़लतियों की पोटली आयी है. वह बार बार उसको खोलता है, देखता है, उसी में से चुनता है. लेकिन आदमी के हाथ ही स्वाभिमान और जज़्बे का ख़ज़ाना भी लगा है. एक आदमी ग़लतियों की खान हो सकता है. एक आदमी हिम्मत की मूर्ति. और बहुत पुरानी बात कि हम अपने फ़ैसलों का कुल जमा हैं. इधर अनघ शर्मा की कहानियाँ पढ़ रहा हूँ. ‘धूप की मुँडेरनाम का संकलन आया है राजकमल से. इसी में एक कहानी है,’चाँद की पेशानी पर इक दाग़ है…’ बिसरने, पाने का भ्रम होने और बिसर जाने के बीच की कहानी. 

दिल अटका हुआ है यहीं जाने कितने दिनों से. जो जीना चाहते हैं, जो पूरा जीते हैं, वे जानते हैं कि ज़िंदगी बिना क़ीमत कुछ नहीं बाँटती - क़ीमत चुकाते चुकाते ज़िंदगी बीत जा सकती है - लेकिन एक शै है सनक और एक और शै है ज़िंदादिली. डूब जाने का डर लगा तो ख़ाक दरिया तैर पाए आदमी. और फिर यह भी कि चाहों का जादू ऐसा होता है कि आदमी बाक़ी सब भूल जाता है. प्यार तो सबसे ग़लत चाह का नाम है. इसीलिए उसका जादू सबसे बड़ा है. उसकी सनक सबसे बड़ी है और उसका धोखा भी सबसे बड़ा है. इसीलिएनिस्बतों से आज़ाद हो, वफ़ादारियों से भी आज़ाद हो जाओ.' एक लड़की ने मोहब्बत की, उसके हिस्से दिल्ली आयी. एक पेंटर ने मोहब्बत की ही नहीं, तस्वीरें बनाता रहा. कला सध गयी लेकिन उसने कभी उसको जिया ही नहीं. इसीलिए कहानी उस लड़की की है जिसने पाने को अपने जूतों की नोक पर रखा और ज़िंदगी को दोनों हाथों से थामे रही. इसीलिए पुनीत कायर था और  दिल्ली में अकेली रहने वाली निकहत हंगामाखेज़ और बहादुर.

कहानी में बुद्ध चले आते हैं और हसन-हुसैन भी. दिल्ली कोई पुराना शहर नहीं, मेट्रो और शराब पीने वाली लड़कियों से बसा हुआ जहाँ - ‘वहशत है, हवस है और मुहब्बत है.’ आगरा भी है लेकिन उसकी उदासी, उसके बोझ और यमुना की मटमैली लहरों वाला. उतना ही उदास जितना ग़ालिब के समय था. निकहत भी उसी रास्ते आयी, जिधर से वे आए होंगे.

अनघ में धैर्य बहुत है. वे मुझे बहुत बहुत पुराने ज़माने के लगे - एक ट्रेंड, ट्रेडिशनल लेखक की तरह. उनका पूरा लिखा हुआ, हिंदुस्तानी में- हिंदी और उर्दू की बाइनेरी के बहुत ऊपर - एक एक वाक्य, ठीक ढंग से सजाया हुआ, एक एक वाक्य में एक एक हर्फ़ सिर्फ़ अपने भर जगह घेरता हुआ और अपने होने को जायज़ ठहराता हुआ. कुछ भी फ़ालतू नहीं. इसीलिए यत्न का आकांक्षी. अनघ का अपना एस्थेटिक्स है और वे पढ़ते हुए आपको अपनी दुनिया में बिना किसी कोशिश लेकर चले जाते हैं. कई बार लगता है आप कहानियों से कविता में पहुँच गए. उनको पढ़ते हुए मुझे गुलज़ार की छोटी कहानियाँ याद आयीं. कई बार नासिरा शर्मा भी. लेकिन बातें अपने दौर कीं, पात्र यहीं इसी दुनिया में रहने वाले, इसी के संघर्षों से लदे-फ़दे, इतने ही आधे-अधूरे जितने हम और आप हैं और इतनी चाहों से भरे हुए, इतनी चाहों से भरे हुए कि एक लेखक को उनका क़िस्सा कहते हुए पूरी उम्र लग जानी है.

लेकिन, मुझको बार बार लगता है, हम जीतना जिसको कहते हैं, क्या वही जीतना होता है? खानाबदोशी हार जाना है? भारी रातों में जो आदमी करवटें बदल रहा है, वह हार गया? जीतने की इच्छा कितनी अश्लील इच्छा है और हारने का नायक़त्व कितना बड़ा! हम सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने संघर्षों में महान बन सकते हैं. मुझको बार बार यह लगता है. कहानी पढ़ते हुए बार बार यह लगता है. दुःख, अकेलापन हमें बड़ा बनाता है, हमें सूरज के सामने खड़े होकर आँखें मिलाने का हौसला देता है.हमें आदमियत के क़रीब ले जाता है. अनघ इसी धूप की मुँडेर पर एक घर बनाने की कोशिश करते हैं. उनकी यह कहानी कई दिन तक साथ रहेगी. निकहत सोच लेती है कि ‘दिन के मासूम उजले चेहरों को रातों के भारी लबादे पहनने होंगे.’अब्बू मान लेते हैं. जिस दुनिया में यह नहीं होता, उस दुनिया में भी अनघ बहुत नाउम्मीदी में भी एक ऐसा सपना देख लेते हैं. निकहत कह देती है कि ‘अब कोई वापसी नहीं, अंदर धूप पालनी है.’ पाल लेती है देह में धूप. मौत की ठंडक के बनिस्पत.
कवि चाहता है उसके भीतर निकहत जैसा हौसला घर बनाए.