उदारवाद और नवपूँजीवाद की दौड़ में भागते हुए स्मृति से बहुत कुछ ओझल हो गया है. कई संस्कृतियाँ भी - एक ऐसी पीढ़ी के लिए जिसने अपना होश ही नव पूँजीवाद के मूल्यों से बनी दुनिया में सम्भाला है. क्षणिकता और आत्मकेंद्रित होना इस दुनिया का प्राकृतिक चरित्र है. प्रतिरोध की जिस स्वस्थ संस्कृति से बहुसंख्या की भेंट भी नहीं हुई, अपने सवालों को लेकर मुखर होने की ज़रूरतों और सत्ता तंत्र के कामकाज के तरीक़ों पर जिस समय में बहसें नहीं होतीं, उस समय में “हल्ला बोल” नई जगहें पैदा करने वाली किताब है, एक बहुत बड़े तंत्र का एक पुर्ज़ा भर बन जाने की ख़िलाफ़त करती हुई, अपने आदमी होने को बचाए रखने की वकालत करती हुई और ज़ाहिर है कि सफ़दर हाश्मी इस किताब के केंद्र में हैं.
जो सफ़दर को नहीं जानते, जनम को नहीं जानते, नुक्कड़ नाटकों को नहीं जानते, जिन्होंने नब्बे के दौर का उन्मादी समय नहीं देखा, जिनको देश की स्मृति और देश का इतिहास सोशल मीडिया और आईटी सेलों से मिला है, उनको जानना चाहिए कि असल में जनसंघर्षों और जनवादी विचारधाराओं का चरित्र क्या रहा है. किताब इसीलिए सफ़दर पर होते हुए सफ़दर के बहाने उन चौराहों, गलियों तक भी जाती है जहाँ पहले की पीढ़ियों ने वे अलाव जलाए जिनसे सफ़दर जैसी मशाल पैदा हुई. कि सफ़दर इन सभी का प्रतीक था, कि सफ़दर का जीना और सफ़दर का मर जाना इतिहास की गति पर क्या असर डालता है, यह लेखक विस्तार से बताते हैं. किताब उल्टी शुरू होती है, यानी फ़्लैशबैक में. पहला प्रसंग ही सफ़दर की हत्या और उसके ठीक पहले के घटनाक्रम को बताता है. पाठक सफ़दर से मिलता है, सफ़दर के उस बुद्धिजीवी से मिलता है जो अपने से उम्र में कम एक लगभग नए लड़के का कवियों, लेखकों, विचारकों से परिचय करा रहा है. यही बतकही इस दो हज़ार बीस की पीढ़ी से छूट गयी यह एहसास होता है.
अपने आदर्शों के लिए जीना बिना समझौते, उनके लिए जान दे देना सफ़दर को उस आंदोलन का प्रतीक बना देता है जो संघर्षरत है और मुक्ति का स्वपन देखता है. मज़दूरों और कामगारों के बीच दिल्ली से सटे साहिबाबाद में एक नुक्कड़ नाटक के दौरान 1 जनवरी, 1989 को गुंडो ने एक हमले में सफ़दर की हत्या कर दी. उसके बाद के तीस सालों में देश ने हिंसा के नए नए खेल देखे, उसके जस्टिफ़िकेशन देखे. हमारे समय के लिए सफ़दर की कहानी, उसका छोटा लेकिन ज़िंदा जीवन, ना सिर्फ़ नयी पीढ़ी के लिए उद्देश्य निश्चित करता है, संघर्ष का तरीक़ा भी बताता है. जनचेतना और कला. रंगमंच पर जो थोड़ा बहुत लिखा गया है, किताब उसमें महत्वपूर्ण जोड़ है. यह पूछ लेना चाहिए कि क्या 2020 में सफ़दर को एंटी नैशनल नहीं कहा जाता? क्या 2020 में सफ़दर अर्बन नक्सल कहलाते? ये सारी बातें किताब को समकालीन बहसों के केंद्र में रख देती हैं, सफ़दर की प्रासंगिकता पर तो ख़ैर कोई संदेह कभी था ही नहीं.
सुधन्वा देशपांडे ने किताब लिखी है. वे सफ़दर की नाट्ययात्रा और संघर्षों में सहभागी रहे. सफ़दर की शवयात्रा में रेड वालिंटियर रहे. योगेन्द्र दत्त ने किताब हिंदी अनुवाद किया है और कहीं से भी अनुवाद की तरह नहीं लगता. इतनी सहज है भाषा. किताब एक स्मृति की तरह है, जब सब फ़ौरी है और तुरंत अदृश्य हो जाता हुआ, किताब उस व्यक्ति की स्मृति है जो ठहरने, समझने और संघर्ष करने की ताकीद करता था.
(यह लेख जनसंदेश टाइम्स में 18.12.2020 को आया था. ऊपर इस्तेमाल हुई तस्वीर हिंदुस्तान टाइम्स से साभार)