चाँद की पेशानी पर एक दाग़ है : अनघ शर्मा की कहानियाँ





बहुत कुछ बीच में ही बिसर जाता है. हम ईश्वर नहीं हैं. आदमी के हाथ ग़लतियों की पोटली आयी है. वह बार बार उसको खोलता है, देखता है, उसी में से चुनता है. लेकिन आदमी के हाथ ही स्वाभिमान और जज़्बे का ख़ज़ाना भी लगा है. एक आदमी ग़लतियों की खान हो सकता है. एक आदमी हिम्मत की मूर्ति. और बहुत पुरानी बात कि हम अपने फ़ैसलों का कुल जमा हैं. इधर अनघ शर्मा की कहानियाँ पढ़ रहा हूँ. ‘धूप की मुँडेरनाम का संकलन आया है राजकमल से. इसी में एक कहानी है,’चाँद की पेशानी पर इक दाग़ है…’ बिसरने, पाने का भ्रम होने और बिसर जाने के बीच की कहानी. 

दिल अटका हुआ है यहीं जाने कितने दिनों से. जो जीना चाहते हैं, जो पूरा जीते हैं, वे जानते हैं कि ज़िंदगी बिना क़ीमत कुछ नहीं बाँटती - क़ीमत चुकाते चुकाते ज़िंदगी बीत जा सकती है - लेकिन एक शै है सनक और एक और शै है ज़िंदादिली. डूब जाने का डर लगा तो ख़ाक दरिया तैर पाए आदमी. और फिर यह भी कि चाहों का जादू ऐसा होता है कि आदमी बाक़ी सब भूल जाता है. प्यार तो सबसे ग़लत चाह का नाम है. इसीलिए उसका जादू सबसे बड़ा है. उसकी सनक सबसे बड़ी है और उसका धोखा भी सबसे बड़ा है. इसीलिएनिस्बतों से आज़ाद हो, वफ़ादारियों से भी आज़ाद हो जाओ.' एक लड़की ने मोहब्बत की, उसके हिस्से दिल्ली आयी. एक पेंटर ने मोहब्बत की ही नहीं, तस्वीरें बनाता रहा. कला सध गयी लेकिन उसने कभी उसको जिया ही नहीं. इसीलिए कहानी उस लड़की की है जिसने पाने को अपने जूतों की नोक पर रखा और ज़िंदगी को दोनों हाथों से थामे रही. इसीलिए पुनीत कायर था और  दिल्ली में अकेली रहने वाली निकहत हंगामाखेज़ और बहादुर.

कहानी में बुद्ध चले आते हैं और हसन-हुसैन भी. दिल्ली कोई पुराना शहर नहीं, मेट्रो और शराब पीने वाली लड़कियों से बसा हुआ जहाँ - ‘वहशत है, हवस है और मुहब्बत है.’ आगरा भी है लेकिन उसकी उदासी, उसके बोझ और यमुना की मटमैली लहरों वाला. उतना ही उदास जितना ग़ालिब के समय था. निकहत भी उसी रास्ते आयी, जिधर से वे आए होंगे.

अनघ में धैर्य बहुत है. वे मुझे बहुत बहुत पुराने ज़माने के लगे - एक ट्रेंड, ट्रेडिशनल लेखक की तरह. उनका पूरा लिखा हुआ, हिंदुस्तानी में- हिंदी और उर्दू की बाइनेरी के बहुत ऊपर - एक एक वाक्य, ठीक ढंग से सजाया हुआ, एक एक वाक्य में एक एक हर्फ़ सिर्फ़ अपने भर जगह घेरता हुआ और अपने होने को जायज़ ठहराता हुआ. कुछ भी फ़ालतू नहीं. इसीलिए यत्न का आकांक्षी. अनघ का अपना एस्थेटिक्स है और वे पढ़ते हुए आपको अपनी दुनिया में बिना किसी कोशिश लेकर चले जाते हैं. कई बार लगता है आप कहानियों से कविता में पहुँच गए. उनको पढ़ते हुए मुझे गुलज़ार की छोटी कहानियाँ याद आयीं. कई बार नासिरा शर्मा भी. लेकिन बातें अपने दौर कीं, पात्र यहीं इसी दुनिया में रहने वाले, इसी के संघर्षों से लदे-फ़दे, इतने ही आधे-अधूरे जितने हम और आप हैं और इतनी चाहों से भरे हुए, इतनी चाहों से भरे हुए कि एक लेखक को उनका क़िस्सा कहते हुए पूरी उम्र लग जानी है.

लेकिन, मुझको बार बार लगता है, हम जीतना जिसको कहते हैं, क्या वही जीतना होता है? खानाबदोशी हार जाना है? भारी रातों में जो आदमी करवटें बदल रहा है, वह हार गया? जीतने की इच्छा कितनी अश्लील इच्छा है और हारने का नायक़त्व कितना बड़ा! हम सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने संघर्षों में महान बन सकते हैं. मुझको बार बार यह लगता है. कहानी पढ़ते हुए बार बार यह लगता है. दुःख, अकेलापन हमें बड़ा बनाता है, हमें सूरज के सामने खड़े होकर आँखें मिलाने का हौसला देता है.हमें आदमियत के क़रीब ले जाता है. अनघ इसी धूप की मुँडेर पर एक घर बनाने की कोशिश करते हैं. उनकी यह कहानी कई दिन तक साथ रहेगी. निकहत सोच लेती है कि ‘दिन के मासूम उजले चेहरों को रातों के भारी लबादे पहनने होंगे.’अब्बू मान लेते हैं. जिस दुनिया में यह नहीं होता, उस दुनिया में भी अनघ बहुत नाउम्मीदी में भी एक ऐसा सपना देख लेते हैं. निकहत कह देती है कि ‘अब कोई वापसी नहीं, अंदर धूप पालनी है.’ पाल लेती है देह में धूप. मौत की ठंडक के बनिस्पत.
कवि चाहता है उसके भीतर निकहत जैसा हौसला घर बनाए.