सफ़रगोई : बनारस: इश्क़ में हर नफ़स इबादत है.







बनारस ओवररेटेड है और ओवर-एक्सप्लोर्ड भी. लेकिन मेलनी से मैं बनारस में ही मिला. एक क्लिशे ये भी कि अस्सी घाट पर. एक और क्लिशे ये कि नींबू की चाय पिलाने वाले उस लड़के से मैंने पचास का गाँजा ख़रीदा था. और ये कि मैं अकेला एक कोने में गिंज़्बर्ग की एक किताब लिए बैठा था. किताब वहीं, उस किताब की सुंदर दुकान से ख़रीदी थी, जिसके बारे में अस्सी घाट जाने वाला हर आदमी जानता है. अंधेरा हो चुका था, कभी एक रक़ीब के हाथों उसी किताब में गिंज़्बर्ग और पीटर की एक कलकत्ते की तस्वीर देख कर, एक कुर्ता एक प्रेमिका से पैसे लेकर सिलाया था और वही पहने था. जनवरी ख़त्म हो चली थी. जैकेट-भर ठंड थी लेकिन लाल शाल लपेटे, बीत गए सालों से लिपटे हुए, ईश्वर के होने के सबूत ढूँढता, कोई पहली बार तो नहीं पर इस तरह पहली बार ही एक शहर पहुँचा था. दूर कुछ विदेशी गा रहे थे और उनके साथ ही पर थोड़ा अलग मेलनी बैठी हुई थी- तब नाम कहाँ जानता था.


अगर आपने पिछली सारी भटकों के बारे में पढ़ा है तो कुछ पैटर्न तो आप समझ ही गए होंगे. जो बहुत सफल हैं, वहाँ मेरा मन नहीं रमता. जिन जगहों पर बहुत रौशनी है, वहाँ मुझे घुटन होती है. जो सब कहते हैं, वही कहने का क्या मतलब. लेकिन फिर नया क्या है कहने को. ढूँढने से सब मिल जाता है. वैसे ही जहाँ सब जाते हैं, वहाँ जाने का कोई मतलब नहीं, लेकिन फिर भी वहाँ जाना पड़ता है क्योंकि ऐसी कौन सी जगह है जहां कोई नहीं जाता? द्वन्द यही है. एक पैटर्न यह भी है कि प्रेम अगर सफल हो जाए तो फिर वैसा प्रेम मुझको नहीं चाहिए. इधर मुझको लगने लगा है कि जीवन में जाने वो कौन सी बुरी घड़ी थी जब असफलताओं से इस तरह का आकर्षण हो गया वह भी तब जब समय ऐसा है कि असफलताओं के लिए जगहें बची ही नहीं. फिर भी मुझे असफलता दिखाई दी और मैं मेलनी को देख कर मुस्कुराया. उसने उस अंधेरे में भी गिंज़्बर्ग की किताब पहचान ली और सीढ़ियाँ बदल कर मेरे पास चली आयी. 


अगले कुछ दिन मेलनी के थे. मेलनी के बनारस के. कबीरचौरा की गलियों में घूमती हुई मेलनी. उसकी गोरी त्वचा पर उसके काले टॉप की डोरियाँ और मेरी आँखों में भयानक अपराधबोध. गोदौलिया से पैदल घाटों पर घूमती मेलनी और उसके हाथों में जो उसका लाल रबरबैंड बंधा रहता था, उससे फँसी मेरी ऊँगली. विश्वनाथ मंदिर के पास भटकती बिना धर्म की आस्तिक मेलनी और धर्म के साथ नास्तिक मैं. आश्चर्य ही था कि वह कुछ इग्ज़ाटिक नहीं खोज रही थी. आश्चर्य ही था कि वह भारत नहीं आना चाहती थी. मेरे दिमाग़ में कई पूर्वाग्रह थे. बनारस की गंगा नहाने लायक नहीं, उसने ये कहते हुए अपने साथियों के साथ डुबकी नहीं लगाई. हम नाव से घूमते रहे और वह मुझसे भारतीय कवियों के बारे में पूछती रही. एक पूरी दोपहर, मान सिंह के महल में धूप से नहाते, गंगा को देखते हम बैठे रहे. जो तप रहा था वह बस दृश्य में था, उसमें गंध का और स्पर्श का कोई मेल नहीं था. और तब तक वह काफ़ी था जब तक नाकाफ़ी नहीं हो गया. 


नशा सबसे ख़तरनाक अकेले में होता है और उससे ख़तरनाक दुकेले. मैं बी.एच.यू. मेन गेट के सामने से थोड़ा हट कर एक गली में एक दो सौ रुपए के कमरे में ठहरा हुआ था. कमरे में सिर्फ़ किताबें थीं, एक पलंग, एक कुर्सी और मेरा एक छोटा बैग. बनारस में यूँ भी रहा जा सकता है. कवियों ने आख्यान लिखे हैं इस बारे में और हिंदी में तो लगभग इतने कवि-लेखक बनारस से आते हैं कि मैं बनारस के नाम से सहम जाता हूँ. भारी भरकम ढाँचों में अपनी औक़ात भर जगह खोजने का शग़ल असफलताओं के प्रेमियों को नहीं करना चाहिए. लेकिन बनारस में मेलनी भी थी. उसी कमरे में मैंने एक दिन यह पाया कि मेलनी बिना आईलाइनर के भी बहुत सुंदर लगती थी. यह भी पता चला कि सफ़र पर होते हुए आप हर तरह के बंधन से मुक्त हो जाते हैं. सिर्फ़ वही बंधन बचते हैं, जो आपने ख़ुद चुने होते हैं. पंद्रह दिन एक औसत जीवन में कितना अर्थ रख सकते हैं! जूलीयन बार्ंज़ के एक उपन्यास से एक प्रकरण बार बार याद आता था. उसका नायक भीरु था. उसने जीवन में स्वार्थ से भरे प्रेम किए. वह जीन से शायद पेरिस में मिला था. 



सीधा कह देना जैसा कविता का अपमान है, प्रेम का भी है. फिर प्रेम ही तो एकलौती तरह की क्रांति है जो सही में व्यवस्था में परिवर्तन करती है. मैंने मेलनी को यही सब कहा. उसको हिंदी में गालियाँ सिखाईं और हम बदस्तूर पंद्रह दिनों तक वह सब ढूँढते रहे जिसका उत्सव कोई नहीं मना रहा था, जो सुंदर तो था लेकिन सफल नहीं था, जो बाद में एक अंगार की तरह कलेजे में जल सकता, टीस सकता. बनारस आपसे कुछ छीनता नहीं लेकिन जो आपसे छूट जाता है, उसके चिन्ह आप बनारस छोड़ आते हैं. जो आपका गुम गया, वह उसके  ख़ज़ाने में कहीं है, यह भरोसा बनारस ही आपको देता है. मैं बनारस का नहीं था. बनारस मेरा नहीं. जैसे मेलनी. मेलनी ने एक बैगनी स्टोल इटली में ख़रीदा था. बहुत महँगा. वह मैंने चुरा लिया. अपनी एक हरी शर्ट जो उसको बहुत बड़ी होती होती थी, उसे तोहफ़े में दी. उसके बालों की एक लट भी एक रात चुपके से मैंने काट कर रख ली. उसने गुजरात में कहीं एक पायल ख़रीदी थी, जो एक रात बी.एच.यु. कैम्पस में घूमते हुए टूट गयी थी. वह भी अपने बटुए में रख ली. 


कई सफ़र ऐसे भी होते हैं जो मंज़िल पर नहीं पहुँचते. कई सफ़र ऐसे जहाँ से साथियों को अलग अलग मंज़िलों की तरफ़ बढ़ना पड़ता है. इससे क्या कम हो जाता है? ऐसा ना हो तो क्या रह जाएगा. पहले ही चेतावनी दे चुका हूँ कि आप हारों से आकर्षित होने वाले व्यक्ति का लिखा पढ़ रहे. क़िस्सों को यूँ ही ख़त्म होना होगा वरना ये अनुभव कहाँ से आएँगे. महसूस कर पाने के नशे से ऊपर कोई नशा नहीं, एक ही जीवन में कई जीवन जी लेने के अडिक्शन से बड़ा और घातक कुछ नहीं. लेकिन फिर एक जनवरी थी, जहाँ एक नदी थी, एक अलावों से तपता हुआ शहर था, एक लड़की थी, एक कवि था - जो भी उस जनवरी मुझसे बनारस में मिलता रश्क करता. 

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