सबसे बड़ा सच यही है कि अंत में आदमी अकेला है. कई यात्राएँ आएँगी ज़िंदगी में और एक आख़िरी यात्रा भी, जो आपको अकेली ही करनी है. यही सीखने में बरसों लगते हैं और यह वह दंश है जिसका भूलना आपकी ज़िंदगी में नहीं आता और जिसकी आकांक्षा में आप रोज़ जिए जाते हैं, रोज़ झेले जाते हैं. यह पहाड़ आपको अपनी पीठ पर लिए रोज़ घर से निकलना है और लिए हुए ही अपने बिस्तर की तरफ़ अपने कमरे की तरफ़ लौटना है. पहाड़ों का बोझ हल्का करने किधर भागा जाए, पहाड़ों की ओर? गहरी निराशा, अवसाद के सब इंजेक्शन, हताशा और अपनी हार जब बदस्तूर खीजाने लगती है, आदमी पहाड़ की ओर भागता है.
हृषिकेश, लोग शांति की चाह में जाते हैं और मैं घूमता हुआ चला गया. लम्बे पाटों वाले किनारे, तेज़ बहता पानी, उसका शोर, और खुला आसमान. किसी बहुत प्रसिद्ध जगह जाने की ज़रूरत नहीं. कोई ख़ाली किनारा खोजिए. दूर दूसरे तट पर कोई दिखता हो. हल्की ठंड पड़ रही हो, पहाड़ की गंध आपकी नाक में जाए, यह इल्तिजा करिए और जो कुछ दिल में भर गया हो, नदी से कह दीजिए. सुन लेगी. पहला दिन यूँ ही बीतना चाहिए. विस्मृति की चाह करते हुए. बिना कुछ लिखे, बिना कुछ कहे महसूस करते हुए. कोई गाना कान में ना बजता हो, सड़क इतनी दूर हो कि गाड़ियों की आवाज़ ना के बराबर आती हो, रौशनी इतनी कम कि जो कुछ भी दिखता हो आपके हाथ देखते हों.
प्रेयसी से कहिए कि वह आपको थामे रहे, उसके पैर अपनी गोद में धरे उसको थामे रहिए, उसकी गर्दन में लगाते रहिए होठों के निशान, पर इतने धीमे की शोर ना हो. उसका कलेजा भी भरा हुआ है और आप उसको कुछ नहीं दे सकते. उसने आपसे प्रेम किया है. इस यात्रा पर अपने दुखों को केवल अपने साथ लिए इतनी दूर आपके लिए वह आयी है. यह समझिए कि जैसे यह आपके ऊपर तारों भरा आसमान है, वैसे ही आपकी क़िस्मत हुई कि प्रेयसी अपने दुखों के बावजूद, उनके प्रति आपकी अकर्मण्यता के बावजूद, आपके साथ है. पहले पैराग्राफ़ में जिस अकेलेपन की बात मैंने की, वह कभी नहीं छूटेगा, आप भीड़ में रहेंगे फिर भी आप अपने अकेलेपन, अपने दुखों से घिरे रहेंगे. इस स्थिति से कोई सामंजस्य कभी नहीं बैठ पाएगा.
इसीलिए अगला दिन हृषिकेश के बाज़ारों के लिए छोड़िए. ख़ुद अदृश्य हो जाइए और लोगों का जीवन ओढ़ लीजिए. ढीले पजामों में लोग दिखाई देंगे, सब अलग अलग भाषाएँ बोलते हुए. आपको महसूस होगा आपकी भाषा कोई नहीं बोल रहा. इतनी बड़ी दुनिया और इतने भीड़ से भरे इसके संकरी, ऊँची नीची गलियों वाले बाज़ार, कोई आपकी भाषा नहीं बोलता हुआ, कोई आपको नहीं सुनता समझता हुआ.
अकेलेपन से अकेलेपन की यात्रा करते हुए बीच में पुल आते हैं, वैसे ही राम झूला आएगा, वैसे ही लक्ष्मण झूला आएगा. वे जंगल दिखाई देंगे जो आपने कभी नहीं देखे, वे फूल, वे पेड़, जो ईश्वर की तरह पूजे जाते हैं, इस अकेलेपन में आप आस्था के सानिध्य में बैठें. हाँ, वो घर आपका नहीं है, वो भरोसा आपके हिस्से नहीं आया, आपका जिया हुआ आपको निरंतर दूर करता है लेकिन प्रेमी समतल होते हैं, वे चुभते नहीं. आप प्रेमी होना स्वीकारिए. क्षण भर के लिए मानवता के अपनी कलुषता धोने के प्रयत्नों में संगी बनिए. एक समुच्चय का हिस्सा बनिए. मानविक अनुभवों में से यह एक ज़रूरी अनुभव है जो आपके कवि को चाहिए. अकेलेपन के बावजूद - उसके स्थापत्य के बावजूद. प्रेयसी पास भी तो जैसे आप उससे एक वाक्य पीछे चलते हुए. जिनके हिस्से पहाड़ आते हैं, उनके हिस्से यह बोध पहले आता है. उसके चुम्बनों की गंध भूल जानी है लेकिन उस जीने के नशे को महसूस करने की ख़ातिर. फिर चल पड़िए.
बहुत पहले लिखा था कि निराशावादी लोग दुःख का सामान्यीकरण कर चुके होते हैं. यह बोध भी बहुत दुखता है. गुम जाने की चाह और गुम जाने के लिए खोजे जाने की चाह. विरोधाभासों के बग़ैर किसी तरह की कला की क्या सम्भावना है. अगर आप तीसरे दिन भी हृषिकेश में हैं तो फिर आपके पास पत्थर का कलेजा होना चाहिए, क्योंकि नदी की गति आमंत्रित करती है, क्योंकि आगे और ऊपर चले जाने का आमंत्रण एक ऐसे भाव से भरता है जो तीस की उम्र में बहुत ज़्यादा थका सकता है.
क्या आसमान के नीचे, उस जीवन की ओर लौटते हुए, जो मृत्यु से ज़्यादा क्लिष्ट है, आप कोई सपना देखेंगे?प्रेयसी का सीना, उसकी साँवली गंध, उसका स्वाद - क्या यह जीवन का आमंत्रण विष नहीं है? जो पहाड़ पीठ पर है वह चाहों का पहाड़ नहीं है? जिस रात आप हृषिकेश पहुँचेंगे, वह शहरों का एक टुकड़ा भर, जिसकी अस्मिता सिर्फ़ एक द्वार भर की तरह है, जिसका अस्तित्व सिर्फ़ पुराने जंगाए ताले जितना है, वह आपको ग़ालिब की एक ग़ज़ल की तरह लगेगा, हार का उत्सव, मृत्यु की जीत का उत्सव, जहाँ आप मरियम के बेटे को खोजते हुए पहुँचे हैं क्योंकि वही आपके जीवन का उत्स है और वही सबसे बड़ा भय भी है.
(तस्वीर : ट्रिप अड्वाइज़र )
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