सफ़रगोई : क्या बुरा था मरना जो एक बार होता:दो रूखों के बीच.





क्या लौटने की कोशिश को सफ़र कहेंगे? चलते चलते आप बहुत दूर निकल जाएँ और फिर एक ऐसी जगह पर खड़े हों जहाँ से वापस लौटना मुश्किल हो? मैं सोता हूँ तो लगता है मैं तुमसे बातें कर रहा हूँ. अवसाद इस तरह भी आता है. यह नहीं जानता था. यह भी कि तुम्हारे साथ मैं आगे की ओर गया था तो यह समझा ही नहीं था कि लौटना अकेले है. तुम दिल्ली तक साथ जा सकती थी लेकिन मन की कन्दराओं में कितनी जगहें और हैं जहाँ अकेले ही ज़ाया जा सकता है अब. दुरूखी गली ऐसी ही एक गली है, जहाँ मैं अकेला ही लौटूँगा. 

दुरूखी दो रूखों, दो दिशाओं में खुलती है. दरअसल एक गली है भी नहीं. गलियों का जाल सा कुछ है. कहीं भी मुड़ जाता है. हाँ, यह तय है कि एक सिरा अशोक राजपथ से जुड़ा है और दूसरा उस समानांतर सड़क से जो राजपथ के बरक्स जनपथ ठहरी. उपरकी और निचलकी. स्कूल के दिनों में, बहुत पहले, बारिश के मौसम में या जाम के समय गोविंद मित्रा रोड के महिमा पैलेस से उस गली में घुसा करते और दूसरी ओर लंगरटोली में निकल जाया करते. तब बहन भी साथ होती. दुरूखी गली में कोई बड़ा शायर नहीं हुआ. इसीलिए वह गली क़ासिम जान नहीं है. हालाँकि ध्वंस ने उसको भी वैसे ही छुआ है जैसे पुरानी दिल्ली को. यह सुनारों की गली है. छोटी छोटी दुकानें. उस दुनिया का दरवाज़ा है, जो मुख्य सड़क की बड़ी दुकानों से छुपा है, शायद प्राचीन भी. हाँ, मैं खुशक़िस्मत हूँ कि मैं लौट सकता हूँ. चाहे जितनी भी मुश्किल हो. इसी चाह ने हमेशा मेरे पैर बेड़ियों से जकड़े भी रखे हैं. इसलिए तुम मुझे कायर भी कह सकती हो. 

तुम्हारे जाने के अगले दिन इस गली में चला गया. क्योंकि तुमने इतनी बड़ी दुनिया में बिलकुल अकेला छोड़ दिया है, जहाँ सब चुभने लगा है, जहाँ सिर्फ़ चिढ़ होती है, मुझको एक सफ़र सम्बल की तरह चाहिए था. अब आगे कहाँ जाऊँगा. इस गली में टप्पू भैया की दुकान होती थी. टप्पू भैया अब नहीं हैं. उनकी उम्र भी बहुत ज़्यादा नहीं थी लेकिन अब सारी तुलनाओं में बहन जीत जाती है. टप्पू भैया अपनी दुकान में बैठा कर बग़ल की दुकान से समोसा और रसगुल्ला खिलाया करते थे. अपने थे, वैसे ही मिल जाते थे. बिना शिकवा, बिना शिकायत. उनसे आख़री मुलाक़ात भी ऐसे समय में हुई जब बहन का जाना पूरी दुनिया पर तारी था. अब वे पुराने दिन बरसात की पहली स्मृतियाँ हैं. कोई दस साल उम्र रही होगी. फिर याद आता है कि तुमने मुझे दस साल की उम्र में कहाँ देखा था. कोई तस्वीर भी नहीं देखोगी अब. यह भी समझ आता है कि लौटा तो तुम्हारे साथ ही लौटा. इतनी अपनी थी तुम कि सफ़र में रहने का श्राप जानते हुए भी घर खोजने लगा. सारे दुःख लालच से पैदा होते हैं. 

लोगों को अपने पते स्टैटस के अनुसार चाहिए होते हैं. पूँजीवादी औपनिवेशिक हीनता किस तरह से काम करती है, यह मैंने अपने परिवार में सीखा है और तुमने अपने परिवार में झेला है, झेलोगी. शायर इस हीनता को रेलिश करते हैं. पते में बोरिंग रोड सुंदर लगता है, लंगरटोली शर्मनाक. इससे बचने के लिए भी मुझे दुरूखी गली में वापस जाना था. गोश्त की दुकानें, बहुत छोटी परचून की दुकानें, खुली नालियाँ, एक दूसरे से सटे हुए पुराने घर, बचपन की गंध और एक स्वत: पैदा हुआ भाईचारा. अपनी नर्तकी प्रेमिका के चले जाने के बाद, ग़ालिब कहीं भी ठहरे हों, नींद में हमेशा चाँदनी चौक पर होते थे. 

शायर कहीं भी चला जाए, हमेशा अपने शहर का होता है. शाहिद ने जितनी बार भी कहे कि वह हर जगह का है, उसके ख़्वाब में सिर्फ़ कश्मीर है. 

तो दो रूखों के बीच ही होते हैं सफ़र हमेशा. यह सफ़रनामा पढ़ कर कौन दुरूखी गली जाना चाहेगा. वहाँ किसी राजा का महल नहीं. वहाँ कोई बड़ा आदमी नहीं रहता. वहाँ कुछ ऐतिहासिक नहीं घटा. अंग्रेज़ी का वह मेटाफ़िज़िकल कवि याद होगा तुमको, राधामोहन सिंह की क्लास वाला. उसने कहा था ना और रॉबर्ट कीटिंग ने दोहराया था- हम कीड़ों का खाना हैं. वहाँ इसी तरह के लोग रहते हैं. लेकिन इन छूट गयी जगहों पर जाकर मुझको सेफ़ महसूस होता है. फिर भी, इस उम्मीद में हूँ कि एक दिन साथ चलेंगे. अज्ञेय कि कविता है. घर. ऐसे ही सफ़रों के बारे में - मुझको तो चलते जाना है, फिर घर कहाँ है. 

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