सफ़रगोई : कश्मीर : मेरी आवाज़ ने ग़ालिब को छुआ और मैं आयतें भूल गया.





तुमको सर्दियों से मोहब्बत है. तुमको बर्फ़ का नशा है. बर्फ़ की अपनी तहज़ीब होती है. अपनी रवायत. आप बर्फ़ की तरफ़ जाते हैं तो अनगिनत चाहों के साथ. लेकिन बर्फ़ की तरफ़ अकेले नहीं ज़ाया जा सकता. जैसे झीलों के किनारे अकेले खड़ा नहीं होना चाहिए. जैसे चाँदनी रातों को कम से कम ग़ज़लों और बेगम अख़्तर से बचना चाहिए. उसने कहा वो मेरे साथ चली जाएगी. वही मुझे अकेला होने से बचा सकती थी और वही मुझे अकेला कर भी सकती थी. कोई नज़्म आपको अगर ज़िंदगी में मिल जाए तो फिर आप उससे भाग नहीं सकते. उसके पेचों-ख़म आपके ज़िम्मे, उसकी बदमाशियाँ, उसकी ज़िद, उसके दर्द, सब अब आपका भी है. आपका ही है. तो मैं वो बुरी नज़्म था जो ख़ुद को शायर समझने की भूल करती है. इस क़िस्से में दो किरदार और हैं, जिनकी भूलें भी कमोबेश ऐसी ही हैं. एक तो वह थी, और दूसरा किरदार - कश्मीर. 


इंदिरा को कश्मीर से बहुत प्यार था. नेहरु को भी. अपनी जड़ों तक लौटने की कोशिश में दोनों कई कई बार कश्मीर जाते, वहाँ का केसरिया आत्मसात करते. इंदिरा अपने आख़िरी दिनों में कश्मीर ही गयीं थीं. अगर नहीं लौटीं होतीं! मुझको वही कश्मीर देखना था. सालन की गंध सूंघनी थी. जहाँ सब साथ हुआ करता था कभी और जिसके खंडहर पर अब शायरों के आँसू रहा करते हैं, वहाँ जाना था और वहाँ डूब जाना था. मुझको शालीमार बाग़ जाना था. नेहरु की रूह, कई कई बार वहाँ जाती होगी. नूरजहाँ और जहांगीर की मोहब्बत से अपनी मोहब्बत को मिलवाना था. अब शाहों को मोहब्बत कम आती है. वे पाना नहीं जीतना जानते हैं. उनको मोहब्बत नहीं आती, नफ़रत आती है. तुम ना होती तो कौन सर्द मौसम में मेरे लिए अलाव बनता. 


कश्मीर जो हब्बा ख़ातून का देस है, वही हब्बा ख़ातून जिसका यूसुफ़ दूर भटकता रहा था, जिसकी माशूका पूरी उम्र यूसुफ़ का इंतज़ार करती रही. कहती रही, ‘वापस आओ, मेरे मैं गुलों के आशिक़, मुझे चुनने दो जास्मीन के गुल तुम्हारे लिए.’ सिर्फ़ पैरों से उधर का सफ़र नहीं किया जा सकता. एक ट्रेन कश्मीर कैसे ले जा सकती है. कश्मीर के हिस्से जो बीता है, मेरे देश के लोगों, वह अकेले कैसे सम्भाला जाएगा. कामरेड, तुम मेरे साथ नहीं जाती, तुम्हारी काली शाल और तुम्हारी गंध के बरक्स ना होता, कैसे जीता जाता. मुझसे बिछोह कैसे सम्भाला जाता. हब्बा ख़ातून का बिछोह. यक्षप्रिया का बिछोह. झेलम का पानी बुलाता था. उसका बहाव, तुम्हारे बिना तुम्हारी देह की याद दिलाता. अपनी पीढ़ी का आख़िरी, कैसे इतने दंश अकेले झेलता. 

एक कायर ही शायर हो सकता है, जानाँ ! 


 इसीलिए अपने पुरखों के गाँव अकेले कैसे जाऊँगा?मैं शाहिद के घर अकेला कैसे जाऊँगा? जो मेरा है वह किस हक़ से तुमको दे सकता था. लेकिन ख़्वाहिशों से बने हैं हम. चिट्ठियाँ कितनी सारी अपने पतों पर नहीं पहुँचतीं, लोग एक बार छूट जाते तो फिर जाने कब तक वापस नहीं आते.कभी वापस नहीं आते. एक शायर था जो एक जमी झील के कोने पर से अपने प्रेमी को आवाज़ देता था. झील जिसने सब समेटा है सालों. झील जो घर है किसी का. लेकिन वही झील जो उस शायर को कुछ नही लौटा सकती जिसके नाम का मतलब फ़ारसी में आशिक़ होता है, अरबी में गवाह. जिसने हुजूँ देखा था, जिया था, ‘मैं एक अजायबघर हूँ, मुझे उसकी आवाज़ के टुकड़े मिल गए हैं - चाहतों का एक नक्शा जिसमें सरहदें नहीं. 


शायर किसका है? मैं किसका हूँ? तुम किसकी हो?कश्मीर किसका है? कश्मीर सरहदों से बंधे बिना ही मिलेगा. जब ना ठंड हो, ना गरमी. दोनों के बीच. हाँ, बर्फ़ का इंतज़ार किया जा सकता है. जैसा मैंने कहा कि बर्फ़ की अपनी तहज़ीब है, अपनी रवायत. बर्फ़ जो ख़ुद ठंडी होती है और लोगों को पास ले आती है. बर्फ़ जिसपर लाल ख़ून ना गिरे, बर्फ़ जो कश्मीर की अपनी हो, बर्फ़ जिसको देख कर तुम ख़ुश हो जाती हो, ख़ुशी जो जितनी तुम्हारी होती है, उससे ज़्यादा मेरी. लेकिन अपनी तनहाइयों में भी कश्मीर जीते हैं, कश्मीर जिसके हिस्से ना तुम आती हो, ना मैं - यही तो हैं हम - सफ़र में- जैसा शाहिद ने कहा था- मुझे इस्माईल बुलाओ!  

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