सफ़रगोई : नीलगिरी पर मेघदूत : संतप्त तुम्हारे पास आश्रय पाते हैं.




एक साथ सफ़र पर निकलना. कोई ख़्वाब ही है ना. जो प्रुस्त यादों के बारे में कहते हैं, क्या वही सपनों के बारे में भी सही है? क्या सपने भी यादें हैं? या यादें सपने? अजनबी शहरों को भी अपना बना लेना. किसी अपने के साथ खोजना अनदेखे में अपनापा. सफ़र अकेले अधैर्य स्थापित करता है और दुकेले सुकून. तुम कईयों की भीड़ में कोई थी. मैं कईयों की भीड़ में कोई. हमारे जीवन, हमारे सुख, हमारे दुःख, हमारा महसूसा हुआ, हमारा झेला हुआ, हमारा जिया हुआ - एक एक क्षण किसी और के क्षण-क्षण से बदला जा सकता था - हम इतने साधारण होते हैं, अपने दिमाग़ के अंदर हमने जो फ़ितूर पाले हों, आख़िर में बस इतना ही, जो आख़िरी यात्रा है, वहाँ जाते जाते सब शून्य हो चुका होता है. यह अनुभूति भी सफ़र देते हैं - लेकिन तुम साथ थीं, इसीलिए, बस इसीलिए, मंसूर हुआ जा सकता था. 


ऊटी में पहाड़ हैं. यह ग़ैरज़रूरी है. हमने लम्बा रास्ता लिया, ये ज़रूरी. कि मुझे शीतलता की ज़रूरत होती, त्रास से देह जल रही होती तो मैं तुम्हारे पास सकता था. तुम्हारी देह मुझको जब चाहे समेट सकती है, यह अहसास तो पुराना नहीं हुआ था तब. यह भी सोचना नहीं चाहता कि जो तुम्हारे बिना जिया है, जो हृदय का सबसे छोटा टुकड़ा तुमको देने का वादा किया था क्योंकि सबसे बड़ा दस साल पहले किसी और को दे चुका था, उस एक टुकड़े के बिना हर दिन फेफड़े नाफ़रमानी करते हैं. याद करो. एक बार तुमसे कहा था, सी.पी. पर, कि मैं तुमसे ज़्यादा प्यार नहीं करता और तुम रोने लगी थी.  क्या इन यात्राओं का कुल जमा हमारी नाकामी को कम कर देगा? 


रात में ठंड थी. कि ऊटी में घर लिए जा सकते हैं, ज़्यादा सस्ते, ज़्यादा आरामदायक, ज़्यादा निजी. यह मैं कहाँ जानता था. तुम समझती थी मेरी उलझनें. कहाँ कहने की ज़रूरत होती है. यही ख़याल आया कि कभी कभी सफ़र में भी घर साथ होता है, और कभी कभी घर में ही घर कहाँ होता है. तुम घर हो मेरा. तुम कह सकती थी. मैं कहाँ, अपनी खानाबदोशी मैंने खुद चुनी थी? क्या मुझे दुखों से, अवसाद से प्रेम है? उनका नशा है? उनसे थ्रिल मिलता है? उनसे हाई होता हूँ? ख़ैर, खेल की तरह गुज़ारे हमने चार दिन. क्योंकि जीवन ही तो अभिनय है. लेकिन यह अभिनय, अब वास्तविकताओं पर भारी रहेगा. सफ़र जैसे, दिनचर्या पर भारी होते हैं. तुमको देखते हुए उठना तीन सुबहों तक. और तुमको सूंघते हुए सोए जाना. तुम्हारे हाथ तुम्हें मेरे हाथों से लगते, तुम्हारी देह कहाँ ख़त्म मेरी कहाँ शुरू - यह कौन जानता. जो वर्जित है, वही आकांक्षित भी होता है - नहीं तो फिर जीवन क्या है. उन्हीं वर्जनाओं का पीछा करना तो सफ़र का प्रयोजन होता है. देखो, जो तुम सोचती हो, मैं चुरा कर लिख देता हूँ, एक बार कह कर, बार बार छल करता हूँ. लेकिन ऊटी भी तो यही थी - जीवन की वास्तविकताओं से एक छल भर. 


एक झील थी - ऐवलैंच झील - और एक नाव. और दो पैर. साथ चलते हुए. मार्केज की कहानी में होता तो किनारे नहीं आना पड़ता, मार्टेल की कहानी में हम एक दूसरे के शत्रु होते, एक ही विचार के दो दूर हो चुके धड़े, एक ही नाव में. और हम ऊटी में थे, इसीलिए ठंड थी, इसीलिए सब ख़त्म हो जाना था. चाय बाग़ान जाने के लिए तुमने साड़ी पहनी और मैंने तुम्हारा बीना स्वेटर. तुमने बड़ा जूड़ा बांधा और घर से निकलते हुए मैंने एक चुम्बन वहाँ छोड़ दिया. तुम मेरे उड़ते बालों का मज़ाक़ उड़ाती रही और मैं टोपी लगाए नेरुदा बना रहा. नीलगिरी पर था, और एक मेघ किसी यक्षप्रिया के पास जाते हुए वहीं बरसा था, क्रौंच-वध वहीं हुआ था और मेरे पुरखों की आत्मा वहीं भटकती थी. इसीलिए रोते हुए तुम्हें चूमना चाहता था. प्रेम के सबसे सघन क्षणों में हम इतना भर जाते हैं कि रोने लगते हैं. फिर यह कहाँ होना था. ऊटी अब जब तक रहेगी, इसका गवाह रहेगी और इतिहास जानता है कि नीलगिरी प्रेमियों के प्रति बहुत दयालु रही है. 


सफ़र, हमें अपने जीवन छोड़ देने का मौक़ा देता है. अवसाद का उत्साह भी कोई अकेले महसूस नहीं कर सकता. उस सफ़र से यह सीखा. हमने साथ जितनी यात्राएँ की, जिनमें हवाई जहाज़ों पर झूठ बोले, एक दूसरे से रूठेचलो हर बार मैं रूठा, सबने यही तो सिखाया कि हम जितने भी ग़लत हो लें, जितनी गिल्ट लिए मैं जीता जाऊँ, तुमसे मोहब्बत करता हूँ. तुमसे मोहब्बत करता हूँ. तुमसे मोहब्बत करता हूँ. मेरा क्रिंज भी तुमको पिघला देता था. मेरे असफल से भी तुमको मोहब्बत थी. यही क्रौंच-युगल से से खो गया. यक्ष इसीलिए यक्षिणी के लिए रोता रहा और इसीलिए मेघ को सफ़र पर निकलना पड़ा. कविता छोड़ देता अगर तुम मिल जाती. और तब भी यही क़ीमत. 


हम गुलाब के बाग में गए और भले ही वहाँ दुनिया की लगभग हर प्रजाति का गुलाब हो, तुम जानती हो मुझे सबसे ज़्यादा मौलश्री पसंद हैं

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