मेरी यादों में मुक्तिबोध : प्रकृति के गंध कोश काश हम बन सकें! 11.09.2017

तस्वीर : साभार: इंडीयन इक्स्प्रेस 


ट्रिपलिंग स्कूटर चलाते हुए मेरे जैसा कुशल ड्राईवर अमूमन क्या बात करता है - हर किसी के जैसे, हम हिंदी के सबसे दूरूह कवियों की बात कर रहे थे. राहुल पीछे लटका था, बालमुकुन्द बीच में. लोहानीपुर की गलियां शमशेर और मुक्तिबोध तक आकर जवाब देने लगीं. जितने बड़े गड्ढे उन सड़कों पर हैं, उतने ही बड़े गड्ढे, इनको लेकर हमारी समझ में भी हैं. मैंने मुक्तिबोध की पहली किताब दरियागंज में खरीदी थी. हंसराज कॉलेज की लाल दीवारों से पीठ टेककर उनकी दो कवितायेँ एक प्रेयसी को पढ़ कर सुनाई.सोचा "शुन्य" से "ज़िन्दगी में जो है सहर्ष स्वीकारा है" का सफ़र हम सब को करना है. मुक्तिबोध तब से ख़ास हो गये.पर इन दो कविताओं के बाद वो कवितायेँ छूट गयी थीं. 
लौटा जब तब तक झंडे कई बार बदल चुका था, आईनों से वास्ता होकर टूट चुका था, गर्दन की चमड़ी बोझ ढोते मोटी हो रही थी और बेचैन दिल हर उम्मीद को संशय से देखता है. इसके पहले अगर मुक्तिबोध को खोजता, शायद ही मिलते. जाने अनजाने हम कवि सबसे ज्यादा अपने वजूद के सवालों से जूझते हैं, और हमारे अन्दर के ग्रे में जो काला है उससे लड़ते जाते हैं.शमशेर के हर बिम्ब में उनका होना तय होता है - मानों एक दृश्य बनेगा और उसमे वो भी शामिल हो जायेंगे. मुक्तिबोध दुनिया को अपने अन्दर शामिल करते हैं और उनका "निजी" सवाल पूछता रहता है बार बार जहाँ शत्रु है वहां भी और जहाँ वो कन्फर्म करते हैं वहां भी .मुश्किल काम है उन पर बात करना- जैसे चाँद है तुम जानते हो, और देखना असंभव है एक बादल वाली रात को. पर चाँद का आकर्षण कहाँ कम होता है. 
बीस रातें ना सो सकने के बाद, इक्कीसवीं रात को मैंने उन्हें दोबारा पढना शुरू किया. तब तक मकबूल फ़िदा हुसैन,मुक्तिबोध की शवयात्रा से लौट जूते पहनना छोड़ चुके थे, एलियट के अलावा मुझे बाकी आलोचकों से चिढ हो गयी थी, पुश्किन का हिंदी अनुवाद बहुत परेशान कर रहा था और कोई सवाल हल होने की बजाय उलझता जा रहा था - मुझे रास्तों की ज़रूरत थी, लम्बी कविताओं के देश जाना था और कविता क्यों करनी है ये सवाल करने की ज़रूरत लग रही थी. महान कवि हमेशा त्रासदी में आपको मिलता है और उबार लेता है.उन्होंने मुझसे पूछा - "दुनिया के नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है."
 और बहुत कुछ सरल हो गया. उनकी डायरी से मैंने अपनी रुलबूक के पन्नों को कुर्बत रखने को कहा, हम सीखते रहे बहुत कुछ. ग्राम्ची और देरिदा से बौखलाहट बार बार उनके पास लायी. उन्होंने फिर कहा-"जहाँ भी स्नेह या संगर, वहां पर एक मेरी छटपटाहट है,वहां है जोर गहरा एक मेरा भी." 

ऐसा नहीं है कि आप इन जवाबों से कन्विंस हो जाते हैं,असल जीवन में भी और कविता में भी खास कर, खुदा बनाने से बचना चाहिए. आप एलियट की हर बात कहाँ मानते हैं चाहे वो कितने तर्क कर ले, हैमलेट जिस कविता का नाम है उसको कैसे नकारा जाए. पर जो समग्र बनता है सोच का,जीवन का, उसका जो केंद्र है उसके आसपास हैं मुक्तिबोध, जैसे शहर के लिए सडकें हैं, सड़कों के लिए गड्ढे हैं और कवियों के लिए यादें हैं. सन चौंसठ में जब ग्यारह सितम्बर को गजानन माधव का निधन हुआ, उनकी माचिस की तीली से बीड़ी जलाती तस्वीर क्लासिक हो जायेगी ये तय था, अगली शताब्दी का सन सत्रह आते आते दायीं और बायीं दोनों ओर सवालों से जूझना होगा कवि को, वो कह चुके थे. सब के अपने अँधेरे - कहाँ है आत्मा (और मैं सुनता हूँ चिढ़ी हुई ऊँची खिलझाई आवाज़). 

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