एक क़ुबूलनामा-चेस्लाव मीलोष



(तस्वीर पोयट्री फ़ाउंडेशन से साभार)




एक क़ुबूलनामा 

चेस्लाव मीलोष  (1985)


मेरे ईश्वर, मुझे स्ट्रॉबेरी जैम बहुत पसंद है 

और एक औरत की देह का घुप मीठापन.


ठीक से ठंडी की हुई वोदका, ज़ैतून के तेल में 

पकी हुई हिलसा मछली, लौंग, हींग की गंध. 


तो मैं कैसा फ़क़ीर हूँ? क्

यों मुझ पर दैवी कृपा हुई है?

कई लोगों को ईश्वरत्व मिला, वे भरोसे लायक थे.

मुझ पर किसने भरोसा किया? 


वे तो देख रहे थे ना,

किस तरह मैं ग्लास ख़ाली करता हूँ, 

किस तरह खाना जीमता हूँ और 

लार टपकता हुआ वेट्रेस की गर्दन की तरफ़ देखता हूँ. 


कमियों से भरा हुआ हूँ. जानता हूँ. 

महानता की इच्छा करना , कहीं भी 

महानता को पहचान सकना - पूरी तरह से नहीं,

टुकड़ों में ही सही लेकिन किसी भविष्यवक्ता की तरह मैं 

जानता हूँ मेरे जैसे छोटे लोगों के लिए क्या बचा है. 


छोटी उम्मीदों की एक दावत, गर्वीलों की एक रैली,

कूबड़ों का एक टूर्नामेंट, साहित्य. 


अनुवाद - अंचित. 


(मिवोश की यह कविता बहुत प्रिय है क्योंकि यह अपनी कमियों की स्वीकृति है. शुचिता, कविता की पहली माँग है और ईमानदारी भी. )

2 टिप्‍पणियां:

  1. इसमें मूल कवि से एक तकनीकी भूल हुई है। हिलसा मछली स्वाद और गंध के लिए ही खाया जाता है, इसलिए इसे तला नहीं जाता है। हींग अपने तीव्र गंध और स्वाद में हिलसा के स्वाद और गंध को दबा देगा इसलिए इसका भूल से भी प्रयोग नहीं किया जाता होगा। बिना अनुभव के इस तरह के प्रयोग से बड़े कवियों को भी बचना चाहिए। ये प्रश्न तुम्हारे अनुवाद पर नहीं है वो तो बढ़िया ही है। इसके अलावा कविता भी अच्छी है।

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    1. यह भी हो सकता है बिना तले किसी तरह की कोई डिश बनती होगी.

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