सहर,
दो दिन पहले की बात है. देर शाम थी. मैं थका था. दूर से चलता आ रहा था. बिलकुल अकेला था और यह भी कि आसपास जानने वाले लोग चल रहे थे. और यह भी कि मैं उनके साथ नहीं चलना चाहता था. मैं तुम्हारा हाथ पकड़ना चाहता था. फिर मैंने सोचा कि दुःख भी किस तरह से हमारे सामने ख़ुद को प्रस्तुत करते हैं. जो एक ख़्याल जिसने मुझे इतने बरस ख़ुशी दी, अब उसकी अहमियत मेरे सामने खुल रही थी.
मुझे तुम्हारी पतली उँगलियाँ याद आयीं, उनका रंग, उनपर जो धारियाँ हैं, वह सब जो स्मृति में एक झटके में रजिस्टर नहीं होता. नदी धारा बदलती है तो पुराने किनारे सूख भी जाते हैं कई बार, मेरी हथेलियों की उपयोगिता ख़त्म हो चुकी. तुमने सिगरेट जलाई होगी. मैंने आगे सोचा. हम कश नहीं बाँट सकते. पर हमारी साँसों की गिनती तय है कहीं - उनमें से कुछ हमने एक दूसरे से बदल लीं हैं. अगर तुम नहीं होगी तो मैं क्या करूँगा . उस बेचैनी को क्या मैं किसी छोटे लेबल के बरक्स बता सकता था? मेरी देह से यह बोझ उठाया नहीं जाता. एक सवाल इतना भारी होता है कि पीठ तोड़ देता है.
एक बार सालों पहले तुमको एक जोकर की कहानी सुनाई थी और तुम रो पड़ी थी. जोकर सेल्फ़ निगेशन में जीता था. इसी से उसका खेला हिट होता था. वह छुपने की कोशिश करता था और उसको दिखना भी था. लेकिन यह एक स्वार्थी चाह थी.
दो शाम पहले वही जोकर याद आया. तुम्हारी आवाज़ मेरे फ़ोन में पड़ी थी. और कई आवाज़ों के देश मेरे भीतर हैं. लेकिन वे आवाज़ें कुछ नहीं सुलझातीं. उल्टे उलझा देती हैं. जिसको मैं प्यार कहता हूँ, वह तो मुझे ख़यालों और विचारों से भी हो जाता है.
मेरा मैं मुझे आगे नहीं सोचने देता. जीवन से मोह, करतबों का उल्लास तक मेरे जैसे सतही व्यक्ति के लिए बहुत बड़ा आकर्षण बन जाता है. झेलता कौन है? बाक़ी सब कई होते हैं लेकिन कोई एक ही होता है जो सम्भालता है -दो दिन पहले की शाम को पहली बार मुझे यह बात समझ आयी. बाक़ी सब कई होते हैं, कोई एक ही होता है जिसके बग़ल में लेट कर बिलखते हुए भी गाढ़ी पक्की नींद में सो ज़ाया जा सकता है.
तुमने मुझसे कहा कि तुम्हें कविता में मेरा नाम सुनना अच्छा लगता है, मैंने और लोगों को कविताओं में लाने के अपराध किए. जो पूजा के पुष्प कहलाने थे, उनको कविता की कुत्सित मूर्ति पर चढ़ा दिया क्योंकि एस्थेटिक्स ज़िंदगी से बड़ा था, कविता की इच्छा, कवि का परवर्जन, हमेशा तुमसे पहले ख़ुद को रखते रहे. यह अनदेखा जो व्यतीत हुआ वह मेरे भीतर बस हताशा जगाता है और ग्लानि. और फिर मुझे लगा कि अगर तुमने मुझे छोड़ दिया तो मेरे पास सिर्फ़ दुर्भाग्य भी नहीं बचेगा. मैं वैसे ही मर जाऊँगा जैसे एक मिनट में कुछ ख़ुशनसीब लोग तुरंत मर जाते हैं. फिर मुझे लगा कि अगर में दुर्भाग्यशाली लोगों की तरह जीता रह गया तो-
एक सुबह तुमने काला चश्मा पहना है. अपनी कॉफ़ी तुम पी चुकी हो. मेरे कप से सिप ले रही हो. तुमने जो सिगरेट जलाई है, मैंने पकड़ी है. बहुत नीला पानी पीछे नदी में है, चौड़े पाट हैं. मैं तुमसे सट कर बैठा हूँ. पर वैसे नहीं जैसे प्रेमी बैठते हैं, वैसे जैसे नमी पाकर बड़े पेड़ों के पास मशरूम उग जाते हैं. सर्दियाँ आ जाने वाली हैं. थोड़ी देर में हम वहाँ से उठ जाएँगे. लेकिन हम दोनों जानते हैं कि पूरी उम्र हम वहीं रह जाएँगे. इन सबको वक्त है अभी. मैं चाह रहा हूँ तुम हँसो. तुम चाह रही हो तुम ना हँसो. हम बैठे हैं एक साथ. इसके बीतने से हमें बीत जाना है. एक भाषा इसको नहीं समेट सकती . जो था वह थोड़ा तुम्हारे भीतर रह गया और जो वहाँ रहा वही थोड़ा मेरे पास भी ठहरा.
एक शब्द से यह प्रसंग ना लिखा जा सकता है. ना बताया जा सकता है.
तुम्हारा
सिर्फ़ तुम्हारा
पूरा तुम्हारा
जय.
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