आदमी एक ज़िंदगी में कितनी बार मरेगा : प्रभात प्रणीत की कविताएँ

सभ्यता की विकास यात्रा मनुष्य के शोषण और उसपर हुए अत्याचारों का समग्र भी है। इतिहास के चौराहे, उसकी सड़कें, उसकी गलियाँ ,उसकी दीवारें , सब पर खून लगा हुआ है। लेकिन सभ्यता की विकास यात्रा, मनुष्य के संघर्षों की गाथा है। इस महाकाव्य में लाखों पन्ने हैं, अनगिनत किरदार हैं, वो समस्त तिथियाँ हैं जिनका असर परोक्ष-अपरोक्ष मेरी आपकी देह पर हो रहा है – इन सब के साथ वो असंख्य प्रश्न हैं जिनसे मेरी आपकी देह का लोहा बना है, जिसकी बदौलत आप और मैं अभी भी युद्ध में खड़े हैं और अपने आत्म को बचाने का संघर्ष कर रहे हैं। “प्रश्नकाल” इन्हीं प्रश्नों का समग्र है – एक कवि सत्ता के सामने सिर उठाए खड़ा है, उससे आँखें मिला रहा है और जिन प्रश्नों को पूछने की अब मनाही है, उनको खड़ा कर रहा है।

प्रभात प्रणीत की कविताओं की पहली पुस्तक “प्रश्नकाल” के कवर पर गोया की एक तस्वीर है जिसमें जंजीर में जकड़ा हुआ एक आदमी है – क्या वह आदमी उनसे छूटने की कोशिश कर रहा है? क्या यह आदमी प्रोमीथियस है जिसे सत्ता ने अनंत काल तक प्रताड़ित करने की साजिश रची थी क्योंकि वह देवताओं से आग चुरा लाया था। प्रभात का प्रोमीथियस, शेली के किरदारों की तरह है। वह कोई खलनायक नहीं है, एक क्रांतिकारी है जिसने वंचितों का पक्ष चुना है। किताब एक जुनून की तरह पाठक पर गुजरती है।इतिहास के सबसे काले कोनों को याद करती है। राजनीति की जटिलताएँ कविताओं में किरदारों की तरह आती हैं। बीत जाती हैं। फिर बीतती रहती हैं। 

पाठक एक ऐसी यात्रा पर है, जहां उसको जाना नहीं है, पर जाने से बच नहीं सकता। करबला से जर्मनी, गंगा के किनारों से नील के किनारों तक।सब एक हो जाता है। इन कविताओं में जो सबसे बड़ा किरदार है वह है, कवि के भीतर बची हुई बेचैनी। चूँकि यह प्रश्नकाल है, कवि की एकलौती चाह है उत्तरों को पाना। समय और राजनीति, वर्तमान समाज, इसमें फ़ैला भ्रष्टाचार इन सवालों के मक़बूल जवाब नहीं दे सकते। “संसार  का सबसे बड़ा झूठ क्या है?/आज़ादी”। मुझको किताब पढ़ते हुए फ़ूको याद आते रहे- उनकी सत्ता की विवेचनाएँ, तंत्र से उनकी असंगतियाँ, असहमतियाँ। क्या कविता में यह सब अपनी जटिलताओं के साथ ला पाना सम्भव था? क्या कविता आदमी की बेचैनियों को सीधे सीधे आवाज़ दे सकती थी? क्या जीवन अपनी कुरूपता के साथ कविता में प्रस्तुत हो सकता था?इन्हीं के बीच प्रभात का कवि अपना रास्ता बनाता है। 

नेरूदा कहते थे प्रेम और राजनीति पर लिखना कठिन होता है और नए कवि को इन पर लिखने से बचना चाहिए। आख़िर इन पर नया क्या लिखा जा सकता है। मुझको कविताओं से नज़ाकत की माँग रहती है। लेकिन तंत्र से पैदा हुई असंगति को कैसे नज़ाकत भी दी जाए और कैसे सीधा प्रहार भी किया जाये। हमारा समाज अब संकेतों की भाषा  समझने, उन पर काम कर पाने की ताक़त खो चुका है। सत्ता तंत्रों की अश्लीलता अब इशारों से नहीं, धक्कों से नष्ट हो सकती है। हिंदी कविता अब अपने लिए नया एस्थेटिक्स बना रही है। प्रभात भी उसी ओर बढ़ते हैं। मैं सोचता हूँ कि क्या कविता ऐसे सम्भव है और फिर लगता है कविता के लिए सम्भावना से ज़्यादा उसके लक्ष्य महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। कवि के कर्तव्यों में सबसे ज़रूरी यही है कि वह अपने समय के लोगों और इतिहास और भविष्य, इन सबसे एक साथ एक सरल सीधी भाषा में संवाद करे। कविता का लक्ष्य यही होना चाहिए और कुछ नहीं। 

प्रभात की कविताओं में इतिहास तो है लेकिन इस इतिहास के इस्तेमाल पर उनकी दृष्टि उन्हें एक विरली समकालीनता देती है - सलीब पर चढ़े यीशु तक पहुँचने का रास्ता भी इंटरनेट से होकर जाता हुआ। भाषा के प्रपंचों से, उसके नकलीपने से संवाद करते हैं प्रभात। पूंजीवाद ने मनुष्य के भीतर के जिस स्याह को उजागर किया है, उसका दुःख कवि अपनी देह पर झेल रहा है - “देह इस भाषा से भी लड़ती है…अनंत शिकायतों के बावजूद संवाद करती है” यही कवि की कविता से फ़ौरी माँग है और चिरंतन भी। 

अंत में, यह कह देना लगभग ज़रूरी लगता है कि इन कविताओं की देह जो है वह जिस बेचैनी से पैदा हुई है, उस बेचैनी के मूल में कोई बचकानी उत्तेजना नहीं, लगातार सहे गए घावों के चिन्ह हैं, अन्यायों, अपराधों की स्मृति है - वह स्वर है जिसने दूर से धरती का कम्पन महसूस नहीं किया बल्कि उन कम्पनों से ही उसकी निर्मिति हुई है। फो के नाटक याद आते हैं, इटली की वह फासीवादी सरकार याद आती है जिसके दमन के सामने फो और फ़्रैंका डँटे रहे, देह पर घाव झेलते रहे और लड़ते रहे। ज़ाहिर है, इसमें हिम्मत लगती है। परिप्रेक्ष्य बदलते हैं, सत्ता के तरीक़े नहीं बदलते इसीलिए कवि का स्वर भी अपना ना पक्ष बदलता है, ना अपनी तल्ख़ी में क्षण भर का भी विराम आने देता है। प्रभात का कवि वंचितों की सामूहिक चेतना का कवि है, देवताओं से आग चुराता हुआ, अंधेरे के दिनों में अंधेरे के गीत गाता हुआ। 

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