मैं बार बार चाहता हूँ कि कुछ ना बदले.
यही एक इच्छा.
यही एक इच्छा जो पूरी नहीं होती.
(सोते हुए पूरा जीवन बिता दिया जा सकता है. भीड़ में, शामिल,
दोहरावों का भाग बने हुए , लेकिन अपनी निर्मिति से कैसे बचा जाए?
क्या यह एक तरह का जस्टिफ़िकेशन है - कितना अच्छा है कि कविता में
ना सफ़ाई देनी पड़ती है
ना
अर्थ
के सम्प्रेषण
की थकान से किसी तरह जूझना पड़ता है.)
नहीं पता था कि जैसे जैसे उम्र बढ़ेगी इस चट्टान का बोझ और बड़ा होता जाएगा. यह मानने के लिए आस्था चाहिए कि चट्टान ही चट्टान का बोझ हल्का कर देगी. मैं चुप हूँ और देखता हूँ. जो है कविता को दे देता हूँ - अनास्था में भी आस्था कविता से ही सम्भव है.
घर कविता में ही.
(तो क्या सबसे बड़ा प्रश्न जीवन नहीं , आस्था है? है तो यह तर्क से परे. फिर मन मानेगा कैसे और सिर्फ़ मान भी लेगा तो पक्का कैसे मानेगा. आस्था विरोधाभासों का अंत है. और अगर विरोधाभास नहीं तो आगे कैसे जाएँगे)
अगर जीवन से ही निषेध हो, अगर देह का ही शमन हो - अगर जीवन का ध्येय जीवन का अंत हो - फिर हम हमारे होने को जानेंगे कैसे?)नहीं
नहीं
नहीं
नहीं
मैं जो भौतिक है, उसको जानता हूँ.
जो देह का, वही सत्य है.
उसी से मन के सभी मकान बने हैं. जहाँ रहना है, जहाँ चाहना है,
जहाँ बिना आस्था के भी हुआ जा सकता है.
(कवि यही आस्था नहीं?)
अंचित
07.03.2021
(सभी तस्वीरें किम-कि-डुक की फ़िल्म स्प्रिंग समर फ़ॉल विंटर स्प्रिंग से )
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