मैं वहाँ का हूँ



मैं वहां का हूँ. 
मेरे पास कई यादें हैं. 
मैं भी ऐसे ही पैदा हुआ जैसे सब होते हैं.
मेरे पास एक माँ है,
कई खिडकियों वाला एक घर है, 
भाई हैं, दोस्त हैं, और 
सर्द खिड़की वाली एक जेल की कोठरी. 
समुद्री बगुलों से चुराई हुई एक लहर, 
मेरा अपना पैनोरमा, 

मेरे पास एक संतुष्ट टापू है. 
मेरे शब्दों के गहन फलक पर छुपा हुआ, मेरे पास एक चाँद है,
एक चिड़िया भर खाना है और एक अमर जैतून का पेड़.
मैं तब से ज़मीन पर रहा हूँ जब तलवारों ने आदमी को शिकार में नहीं बदला था. 

मैं वहां का हूँ, 
जहाँ जन्नत अपनी माँ के लिए रोती है,मैं जन्नत को उसकी माँ लौटा देता हूँ.
और मैं रोता हूँ ताकि लौटता हुआ एक बादल मेरे आंसू शायद ले जाए.

नियम तोड़ने के लिए, 
मैंने वो सब शब्द सीखे हैं 
जो खून के मुक़दमे के लिए ज़रूरी हैं.

मैंने तमाम शब्दों को सीखा 
और तोड़ मरोड़ कर फेंक दिया 
ताकि उनसे बस एक शब्द बना सकूँ:
घर.


महमूद दरवेश 

2 टिप्‍पणियां:

  1. महमूद दरवेश जबरिया विस्थापन के अनन्य कवि हैं जिनके लिखे में मां और घर स्थायी भाव की तरह उभरते हैं।उनकी कविता का भावपूर्ण अनुवाद...बधाई।
    यादवेन्द्र

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